बीकानेर,अफगानिस्तान में अब बहुत कम हिंदू बचे हैं. हिंदुओं की बहुत सी आबादी अफगानिस्तान से पलायन करके राजस्थान में आ बसी है. अफगान राजदूत फरीद मामुंदजई ने शीन खलाई अफगान हिंदुओं से मुलाकात की और दो संस्कृतियों को जोड़ने के लिए उनकी सराहना की.इन शीन खलाई हिंदुओं के सामाजिक उत्थान के लिए सामाजिक कार्यकर्ता एवं वृत्तचित्र फिल्म निर्माता शिल्पा बत्रा सक्रिय हैं. मामुंदजई की शिल्पा बत्रा को भी शाबासी मिली है. शिल्पा फिल्मांकन के माध्यम से इस समुदाय की संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं.
शीन खलाई अफगान हिंदुओं के साथ फरीद मामुंदजई
फरीद मामुंदजई ने अपने ट्वीट में कहा, “राजस्थान, राजपूत योद्धाओं की भूमि सिर्फ लोक संगीत, विशाल किलों और राजसी महलों से कहीं अधिक है. राज्य की गहरी जड़ों में संस्कृति और परंपराएं हैं, जो हर कोने में एक अविश्वसनीय कहानी के साथ अपने समृद्ध इतिहास को समेटे हुए है. ऐसी ही एक कहानी है अफगान हिंदुओं की है.
उन्होंने अपने दूसरी ट्वीट में कहा, “काकर समुदाय अपने स्वदेशी घर से ‘केवल शारीरिक डिस्कनेक्ट’के लगभग आठ दशकों के बाद भी गर्व से अपनी जड़ें जमाए हुए है. बढ़िया काम एटशिल्पा बत्रा. सदियों पुरानी कड़ियों को पुनर्जीवित करने और शीन खलाई/नीली चमड़ी को वापस उनकी जड़ों से जोड़ने के लिए.
शीन खलाई लोग अपनी पुरानी परंपराओं के लिए जाने जाते हैं, जो कभी समृद्ध अफगान संस्कृति का हिस्सा रहे हैं. उन्हें नीली चमड़ी वाला इसलिए कहा जाता है, क्योंकि स्त्रियों और पुरुषों में गुदना यानि टैटू के प्रति जबरदस्त आसक्ति है. कई महिलाओं के शरीर पर इतने टैटू बने होते हैं कि उनका चेहरा और शरीर नीला नजर आता है.
आदिवासी क्षेत्रों की इन महिलाओं के चेहरे के टैटू का रंग उन्हें अपने पड़ोसियों और यहां तक कि पाकिस्तान की हिंदू महिलाओं से भी अलग दिखाता है. इन महिलाओं ने भारत आकर टैटू का स्क्रबर से मिटाने का भी प्रयास किया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली. शिल्पा बत्रा कहती हैं कि उनकी अपनी दादी ने अपना चेहरा ढंकना शुरू कर दिया, क्योंकि बाहरी लोगों के सामने वे शर्माती थीं.
इस समुदाय के लोग जयपुर की फ्रंटियर कॉलोनी में रहते हैं, जो क्वेटा, लोरालाई, बोरी और मैखटर के बलूच इलाकों में रहते थे. भारत आकर भी उनका पहनावा बदल गया है, लेकिन अभी उनकी जीभ पश्तून है. आठ दशकों बाद भी बुजुर्ग फर्राटेबार पश्तो बोलते हैं.
फरवरी, 2018 में तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भी भुला दिए गए अफगान ‘शीन खलाई’समुदाय के लोगों से मिले थे.
द हिंदू में सुहासिनी हैदर की एक रिपोर्ट के अनुसार शीन खलाई गीत के शब्दों पर ताली बजाते हैं, और ‘अत्तन’लोक नृत्य को उसी तरह करते हैं, जिस तरह उन्हें सात दशक पहले सिखाया गया था. शीन खलाई (नीली त्वचा) इन महिलाओं और पुरुषों के लिए सिर्फ एक नाम नहीं है, उनमें से कई 90 साल से अधिक उम्र के हैं, यह उनकी पहचान की कहानी है, जो आज भी आंसू बहाती है. वे 1947 में विभाजन के दौरान अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच कबायली इलाकों से अपने परिवारों के साथ भाग आए थे. महिलाएं पश्तून हिंदुओं के एक समुदाय का हिस्सा हैं, जो क्वेटा, लोरालाई, बोरी और मैखटर के बलूच इलाकों में रहती थीं, और काकरी जनजातियों से संबंधित हैं, जो अभी भी वहां रह रही हैं. 1947 उनके गांवों के लिए दूसरा विभाजन था, क्योंकि 1893 में अंग्रेजों द्वारा थोपी गई डूरंड रेखा ने लोगों के पुश्तून वंश के बावजूद पाकिस्तान को अपने गांव पहले ही दे दिए थे.
1947 में उन्हें रातों-रात अपने घरों से बेदखल कर दिया गया. इनमें से एक लक्ष्मी देवी कहती हैं, “सरकार ने हमें जल्दी से जाने और भारत जाने के लिए कहा. हमने अपने घरों की ओर मुड़कर भी नहीं देखा, बस भाग गए.”लक्ष्मी देवी को अब अपनी उम्र याद नहीं है, लेकिन कहती हैं कि वह तब किशोरी थीं. सिंध और बलूचिस्तान के कई अन्य हिंदू परिवारों की तरह, लक्ष्मी देवी, उनके पिता और भाई-बहनों को जयपुर से लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण में राजस्थान के उन्नियारा गाँव में बसाने के लिए भेजा गया था. लेकिन एक बार जब वे पहुंचे, तो उन्होंने महसूस किया कि हिंदू होने के कारण उन्हें आश्रय मिला, लेकिन उनकी ‘शीन खलाई’ पहचान को देखते हुए यह उन्हें स्वीकृति नहीं मिली.
फरीद मामुंदजई अफगान हिंदू और शिल्पा बत्रा
शिल्पा बत्रा अपनी मां यशोदा की मदद से भारत के 500-600 हिंदू पश्तून सदस्यों तक पहुंच चुकी हैं. जिनके जीवन को वे फिल्मा रही हैं. उन्होंने परंपराओं को जानने के लिए बड़ी-बूढ़ी महिलाओं का साक्षात्कार लिया और महिलाओं को अपने सूटकेस के नीचे से पुराने पारंपरिक आदिवासी कपड़े निकालने के लिए राजी किया, जैसे ‘काकरी कमीज’जो उन्होंने अपने गांवों में पहनी होगी. अधिकांश किनारों पर बिखरे हुए थे, लेकिन अभी भी कढ़ाई, कांच के काम और रंगीन जेम्स से समृद्ध हैं.