बीकानेर,संसार का हर जीव उत्थान चाहता है। हम सभी चाहते हैं हमारा उत्थान होना चाहिए। महापुरुष फरमाते हैं उत्थान के लिए धर्म और पुण्य सहयोगी बनते हैं। उत्थान के लिए कुछ ना कुछ करना पड़ता है। साता वेदनीय उत्थान करती है और असाता वेदनीय पतन की ओर ले जाती है। पाप हमारा पतन करता है। महापुरुष कहते हैं, जो पतन करता है, वह पाप है और पाप से हमें बचना चाहिए। श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने साता वेदनीय के पहले कर्म यतना पर व्याख्यान देते हुए यह बात कही। बागड़ी मोहल्ला स्थित सेठ धनराज जी ढढ्ढा की कोटड़ी में अपने नित्य प्रवचन में आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि यतना का अर्थ जागरुकता या सजगता होता है। जीव में जितनी यह बढ़ती है, साता वेदनीय बढ़ती जाती है। यतना जीवों में होती है, अजीव में नहीं होती है। जीव-अजीव की पहचान श्रावक को होनी चाहिए। श्रावक अगर यह नहीं जानता है तो वह धर्म, पुण्य, संयम को क्या जानेगा। इसलिए पहली आवश्यकता जीव की पहचान है। जीव की पहचान है जो जीता था, जी रहा है और जो जियेगा। महाराज साहब ने कहा कि जीव कभी मरता नहीं है, मरता शरीर है। जीव का ना उत्पाद होता है और ना ही पतन होता है। चेतना (संवेदनशीलता) जीव का लक्षण है। जीव संवेदनाओं से भरा रहता है। प्रसन्नता, खिन्नता, क्रिया-प्रतिक्रिया यह चेतना के लक्षण है। निर्जीव ना प्रसन्न होता है और ना ही खिन्न होता है। उसमें ना क्रिया होती है और ना प्रतिक्रिया होती है। आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि भगवान महावीर बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। उन्होंने हवा, पानी, अग्रि, पृथ्वी में जीव देखे, वह भी संवेदनशील होते हैं। जीव प्राणी किसी भी स्थान, भाव का हो सभी साता चाहते हैं। हमारी चेतनता को अभिव्यक्त करते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि जिसे जीव-अजीव की पहचान हो जाती है वह स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा सभी को जानने लगता है। महाराज साहब ने कहा कि जिज्ञासा ज्ञान प्राप्ति का पहला चरण है। राजा परदेशी और संत के सी श्रमण मुनिराज का एक प्रसंग बताते हुए कहा कि राजा परदेशी नास्तिक और अधर्मी था। लेकिन वह अपनी जिज्ञासा के समाधान ना होने पर ऐसा बना, लेकिन जिस दिन वह पहली बार केसीश्रमण मुनिराज से मिला, उसी दिन वह आस्तिक भी हो गया और धर्म को मानने लगा। इसलिए यह मानकर चलना चाहिए कि गुरु ही जिज्ञासा का समाधान कर सकते हैं। महाराज साहब ने कहा कि जिज्ञासा का समाधान होते ही मन को शांति मिलनी शुरू हो जाती है। लेकिन अज्ञान है तो इससे मिथ्यात्म पैदा होता है और मिथ्यात्म से राग, द्वेष पैदा हो जाते हैं। इसलिए सभी को अज्ञान से उभरने का प्रयास करना चाहिए और अज्ञान से उभरना है तो गुरु की संगत करो, सत्संग का लाभ लो, स्वाध्याय करो, इससे आप सभी का जो पल, दिन-रात और यह समय बीत रहा है,वह सार्थक हो जाएगा। महाराज साहब ने कहा कि मोह का क्षय होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। जो व्यक्ति मोह रखता है वह मोक्ष नहीं पा सकता है। यह मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। ‘थारी मोह माया ने छोड़ , क्रोध ने तज रे, थारी उम्र बीती जाए , प्रभु ने भज रे’ और आत्मअवलोकन के लिए नियमित भजन ‘उम्र थोड़ी सी हमको मिली थी मगर वो भी घटने लगी देखते-देखते’ का समूह गान किया गया। कार्यक्रम के शुरूआत में नवदीक्षित विशाल मुनि म.सा. ने ‘सभा में पधारे हो पाट पर विराजे हो भगवन शोभा बढ़ाते हो, भगवन गरिमा बढ़ाते हो’ गुरु भक्ति से भाव भरा भजन प्रस्तुत किया। विनय सूत्र पर श्रावक-श्राविकाओं को व्याख्यान दिया। प्रवचन के अंत में मंगलिक और णमोकार मंत्र का पाठ हुआ। साथ ही चातुर्मास के दौरान होने वाले महामंगलिक व लोगस सहित अन्य कार्यक्रमों की जानकारी दी गई।
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