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बीकानेर,सभा में पधारे हो, पाट पर विराजे हो, भगवन शोभा बढ़ाते हो, गरिमा बढ़ाते हो..हम पर कृृपा करी, सब पर कृपा करी, धन्य है जिन वाणी गुुरुवर, धन्य है जिन वाणी.., कभी खुशियों का मेला है, कभी आंखों में पानी है, जिन्दगी और कुछ भी नहीं , सुख-दुख की कहानी है…, तपस्या री छाई है बहार, ढढ्ढा री कोटड़ी में… सरीखे एक से बढक़र एक धार्मिक और गुरु की महिमा का बखान करते भजनों की रस सरिता रविवार को सेठ धनराज ढढ्ढा की कोटड़ी में  बहती रही। अवसर था श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब के  स्वर्णिम दीक्षा महोत्सव वर्ष पर चल रहे चातुर्मास का, जहां नित्य प्रवचन में नवदीक्षित विशाल मुनि  म. सा. सहित महासती एवं श्रावक-श्राविकाओं ने आचार्य श्री एवं जिन शासन के गुणों का बखान किया।
इससे पूर्व आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि हर व्यक्ति में नर से नारायण बनने की क्षमता होती है। लेकिन हर व्यक्ति बन नहीं पाता, क्योंकि वह अपनी क्षमता को नहीं पहचानता है। क्षमता को जानने वाला, पहचानने वाला जीवन में  सब कुछ कर सकता है।  लेकिन गड़बड़ यह है कि हम दूसरों की क्षमता को तो पहचान लेते हैं परन्तु अपनी क्षमता का आंकलन नहीं कर पाते हैं।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि  क्षमता तीन प्रकार की होती है। पहली शारीरिक क्षमता, यह मनुष्य के शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाती है। दूसरी बौद्धिक होती है , बुद्धी व्यक्ति की बहुत बड़ी क्षमता की पात्र है। यह शारीरिक क्षमता से भी श्रेष्ठ होती है। तीसरे प्रकार की क्षमता होती है आत्मिक जिसे अध्यात्मिक क्षमता भी कहते हैं। यह जाग्रत होने पर व्यक्ति नर से नारायण बनता है। एकमात्र मनुष्य ही संसार में ऐसा प्राणी है जो शारीरिक, मानसिक और बोद्धिक क्षमता को प्रकट कर सकता है। क्षमता को पहचानते ही जीवन सार्थक हो जाता है। महाराज साहब ने कहा इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो।
कर्म और पुण्य पर व्याख्यान देते हुए आचार्य श्री विजयराज महाराज साहब ने कहा कि क्षमता पुण्य की बदौलत होती है, पुण्य के उदय में सभी क्षमताऐं बढऩे लगती है। श्रावक-श्राविकाओं से एक प्रश्न करते हुए महाराज साहब ने उपस्थित जन समूह से पूछा  कि अपना कौन…?, फिर इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि अपना वो होता है जो समझता भी है और समझाता भी है। जो ना समझ सकता है और ना ही समझा सकता है, वह अपना हो ही नहीं सकता। महाराज साहब ने श्रावक-श्राविकाओं से पूछा कि वह उन्हें अपना मानते हैं कि नहीं, इस पर सभा में मौजूद सभी श्रावक-श्राविकाओं ने एक स्वर में हां कहा, इस पर महाराज साहब ने कहा कि मैं आपको समझता भी हूं और समझाता भी हूं, इसलिए आप मुझे अपना मानते हैं। ठीक इसी प्रकार संत महापुरूष आपको समझ भी सकते हैं और समझा भी सकते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि संसारी लोग संसारी को ही अपना मानते हैं, असल में वो आपके नहीं होते हैं। लेकिन संत जिन्हें आपसे कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें आपसे कोई स्वार्थ भी नहीं है। स्वार्थ राग होता है और राग का वह त्याग करते हैं। इसलिए संतो को अपना माना जा सकता है। आपके दुख, बंध संत के संपर्क में आने से ही दूर होंगे। महाराज साहब ने कहा कि धर्म, नीति, ईमानदारी, प्रमाणिकता, संपर्क से घटित हो रही है। बच्चों को सही संपर्क मिले तो वह अपनी क्षमताओं का विकास कर सकते हैं। संपर्क से नास्तिक आस्तिक बन जाता है अधर्मी धर्मी बन जाता है। महाराज साहब ने कहा कि भौतिकता के इस युग में हम अपनी क्षमताओं का सद्उपयोग नहीं करके दुरुपयोग कर रहे हैं। महाराज साहब ने कहा कि पुण्य का भण्डार करने पर मानव तन की प्राप्ति होती  है और क्षमता मानव तन का बहुत बड़ा प्लान्ट है। इसलिए जीवन में सुख चाहिए तो पुण्य कमाओ, पाप घटाओ, जिंदगी सुख-दुख का नाम है। यह कार्य के प्रतिफल हैं। सुख स्वाभाविक भी होते हैं और प्राकृतिक भी होते हैं। प्रवचन विराम के बाद आचार्य श्री ने एकासना, आयम्बिल, तेला, चौला, पंचौला, छह-सात-आठ उपवास का पच्चक्खान करने वालों को आशीर्वाद दिया। मंगलिक एवं समूह गीत से धर्मसभा को विराम दिया।

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