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बीकानेर,75 वें स्वाधीनता दिवस पर मन में आता है मैंने मेरे देश के लिए क्या है ? क्या राष्ट्र हित मेरे लिए सर्वोपरी है। क्या मैं मेरे देशवासियों के हितों के प्रति सजग हूँ। आजादी की लड़ाई लड़ने वालों पत्रकारों और नेताओं ने कितनी तकलीफे उठाई इतिहास उसका गवाह है। उनके त्याग और कुर्बानी का और कुछ नहीं तो हम अपनी अगली पीढ़ी के लिए चिंता करते हैं क्या ? हम अपना नागरिक धर्म निभा पा रहे हैं। नेता और पत्रकार के रूप में जनता के बीच हमारी साख क्यों गिरती रही है ? पत्रकारिता और राजनीति में नैतिक पतन क्या देश की आजादी के संर्घष करने वाली हमारे पूर्वजों का अपमान नहीं है ? कई सवाल उठते हैं मैंने सोचा बधाई और शुभकामनाएं भेजने वाले मेरे विध्दवान शिक्षाविद मित्र से विमर्श करूँगा, परन्तु ऐसा कर नहीं पाया। देखता हूँ कि लोकतंत्र में राजनीतिक और पत्रकारिता में इतनी विसंगतियां क्या लोकतंत्र की रक्षा कर पाएगी। 75 वें स्वतन्त्रता दिवस पर मैं सोचता हूँ कि सच्चा राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ तो देश की भलाई देखता है। पर ये गुटबन्दी के राजनीतिज्ञ तो पक्षपात से भरे हुए हैं। चुनाव जो हुआ तो जाति का पक्ष कितना था। इतना भारी भेद रूस और जर्मनी के लोगों में नहीं जितना कि एक जाति से दूसरी जाति का चुनाव में देखा गया। धड़ों के दलदल वालों के सामने तो लोकतंत्र बेहतर नहीं हो सकता। न ही राष्ट्रीय ध्येय की पत्रकारिता हो सकती। आज तो हम सभी स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाएं औऱ बधाइयों में व्यस्त है। कल जरा सोचिए कि राष्ट्रीय हित किसके भरोसे होगा।

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