बीकानेर। दान को वरदान बनाने के लिए हमारे अंदर तीन भाव होने चाहिए। दान देने से पहले हमारे अंदर उल्लास का और देते वक्त अहोभाव का और देने के बाद प्रमोद का भाव होना चाहिए। यह तीन भाव दान देने पर हमारे अंदर रहे तो हम इसे वरदान बना देते हैं। दान तो हमारा फर्ज है और अपरिग्रह हमारा धर्म है। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने सोमवार को सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे नित्य प्रवचन में यह भावोद्गार व्यक्त किये। आचार्य श्री ने कहा कि लोग तो अपने फर्ज को भी अदा नहीं करते, लेकिन जो फर्ज को अदा करते हैं और करते रहते हैं, वही धर्म को पाते हैं। ऐसा करने से ही व्यक्ति धर्म की कक्षा में प्रवेश कर पाता है। दान की महिमा बताते हुए महाराज साहब ने कहा कि सुपातर दान का अवसर संयोग वश मिलता है। लेकिन व्यक्ति इसमें भी संकोच करता है। जिस प्रकार माता-पिता की सेवा करना, दीन-दुखियों की सहायता करना और परिवारजन का सहयोग करना हमारा फर्ज है। ठीक इसी प्रकार दान एक फर्ज है। इसे कोई अहसान समझता है तो यह गलत है। महाराज साहब ने कहा कि दान देने वाले को यह मानना चाहिए कि मैं कितना भाग्यशाली हूं जो मुझे यह अवसर मिला है।
आचार्य श्री ने बताया कि व्यावहारिक दान देने से तीन बातें होती है। पहली जिसकी भी आप दान देकर सहायता करते हैं, लेने वाला आपका उपकार मानने लगता है, आभार व्यक्त करता है, इससे दोस्ती बढ़ती है। दूसरा यह कि लोकप्रियता में वृद्धी होती है। महाराज साहब ने कहा कि याद रखो लोकप्रियता किसी का खाने में नहीं, किसी को खिलाने से होती है। प्रेम,आदर और सम्मान के साथ आप किसी को खिलाते हैं तो आपकी लोकप्रियता बढ़ती है। तीसरा अटके काम बनने लगते हैं। रुके हुए काम, जो आप ना जाने कब से चाह रहे होते हैं, वह होने शुरू हो जाते हैं। दान से प्रेम प्रगाढ़ होने लगता है, परिपक्व होता है और पवित्र बनता है।
महाराज साहब ने कहा कि अगर आपको सुखी होना है तो अर्थ का सदुपयोग करो, अर्थ का विज्ञान बताते हुए कहा कि जब आप अर्थ का सदुपयोग करते हो, उसे धर्म में, संघ में, दान में लगाते हो तो वह सम्पत्ति को बढ़ाने वाला, सुरक्षित करने वाला होता है।
महाराज साहब ने व्यावहारिक तरीके से समझाते हुए बताया कि एक याचक कभी याचना नहीं करता, वह सीख देने आता है। आपके द्वार पर कटोरा लेकर आया याचक आपसे कहता है, देते रहो-देते रहो। अगर आप नहीं दोगे तो आपके हाथ में भी अगले जन्म में यह कटोरा आ जाएगा। इसलिए देते रहो, देता है जो देवता है। देवलोक में जब कोई जाता है तो उससे पूछा जाता है कि तुमने क्या किया..?, क्या भोगा और क्या दिया..?। अगर अपने अर्थ को अर्थ दोगे तो जीवन सार्थक होगा, अर्थ नहीं दिया तो व्यर्थ है।
महाराज साहब ने दान की महिमा बताते हुए एक सत्य प्रसंग बताया। महाराज साहब ने कहा कि जब वे 1992 में चित्तोडग़ढ़ के निम्बाहाड़ा में चातुर्मास कर रहे थे। उस वक्त संघ में मोहनलाल नाम के व्यक्ति आते थे। वह बहुत सज्जन पुरुष थे और धर्म में उनका बहुत ध्यान रहता था। एक दिन वह जब आए उनके चेहरे पर बहुत उदासी थी। उनसे जब उदासी का कारण पूछा गया तो वह बोले गुरुदेव मै बहुत तकलीफ में हूं, पूरा परिवार है। गुजर-बसर मुश्किल हो रहा है।जब उनसे पूछा कि माह में कितने कमा लेते हो, इस पर उन्होंने बताया कि वह मात्र साठ रुपए महीना ही कमा पाते हैं। इससे घर चलना मुश्किल हो रहा है। जब आचार्य श्री ने उनसे कहा कि मोहन जी हमारी एक बात मानोगे..?। मोहन जी ने कहा महाराज बताओ मैं आपकी बात मानने ही तो यहां आता हूं। इस पर उनसे कहा कि साठ रुपए माह कमाते हो तो इसमें से एक काम करो, दस रुपए का दान कर दिया करो। प्रत्येक माह जहां साठ रुपए में घर चलता है, अब वहां पचास में चलाने का प्रयास करो। मोहन जी सकपका गए, बोले महाराज मैं तो आपसे कुछ सहायता चाह रहा था और आप मुझे यह सलाह दे रहे हैं। जब उन्हें थोड़ा प्रेम से समझाया गया तो वह मान गए। इसके बाद उन्होंने पहले माह तनख्वाह मिलते ही दस रुपए दान किए। फिर इसके बाद जब दूसरा माह आया तो बोले महाराज साहब चमत्कार हो गया। पूछने पर पता चला दूसरे माह में उन्हें काम खूब मिला और छह सौ रुपए की कमाई हुई। महाराज साहब ने उनसे कहा कि इधर एक मिंडी बढ़ी है तो उधर एक मिंडी बढ़ा दो, वह खुशी से मान गए और इस प्रकार तीसरे माह में भी उन्हें खूब काम मिलने लगा और कमाई बढक़र छह हजार रुपए महीना पहुंच गई। महाराज साहब ने एक मिंडी और बढ़वा दी। इस प्रकार चौथे माह तक उनकी कमाई बढ़ते-बढ़ते साठ हजार रुपए तक पहुंच गई। कहां साठ रुपए और कहां साठ हजार रुपए हो गयी। महाराज साहब ने कहा हम अर्थ के अभाव में दुखी होते हैं और ज्यादा अर्थ होने पर भी दुख आता है। इसका जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए सुखी होना है तो इसका सदुपयोग करो, साता मिलेगी।
एक भजन ‘चार दिनों का मेला है, खत्म हुआ फिर खेला है, क्यों तू लुभाया रे काहे भरमाया रे’ सुनाते हुए कहा कि मोह माया सब यहीं रह जानी है। इसलिए संसार में रहो तो ऐसे रहो जैसे मुंह में जीभ रहती है। जो दांतो से घिरी होने के बाद भी सुरक्षित रहती है और जन्म के साथ आती है और अंत तक साथ रहती है। दांत कठोर होते हैं, जन्म के बाद आते हैं और अंत से पहले चले भी जाते हैं।
एक अन्य प्रसंग सुनाते हुए महाराज साहब ने कहा कि प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फूसियस मृत्यु शैय्या पर लेटा हुआ अपनी अंतिम सांसे ले रहा था। शिष्य उसे घेरे हुए थे। शिष्यों ने कहा महाराज आपने यूं तो सारी उम्र दिया ही दिया है। लेकिन हम आपसे एक अंतिम उपदेश सुनना चाहते हैं, जो हमारे जीवन पर्यंत काम आए। कहते हैं महात्मा ने मुंह खोला और बोला कुछ नहीं। फिर थोड़ी देर बाद बोले कुछ समझे, शिष्य असमंजस में पड़ गए। एक शिष्य बोला महाराज आपने कुछ बोला ही नहीं, कन्फूसियस ने कहा तुमने क्या देखा..?। शिष्य बोले महाराज मुंह में केवल जीभ दिखाई दी, क्योंकि दांत तो पहले ही टूट चुके थे। कन्फूसियस ने कहा कि मैं तुम्हे यही बताना चाह रहा था। इस दुनिया में रहो तो जीव्हा की तरह रहो, कोमल बने रहो, सीधे और सरल बने रहो, जीव्हा कठोर दांतो से घिरे होने के बाद भी जीवन आरंभ से साथ आती है और अंत तक साथ रहती है। दांत कठोर होते हैं, आते भी बाद में हैं और जाते भी पहले हैं। यह कहकर कन्फूसियस ने देह त्याग दी। महाराज साहब ने कहा कि संसार में वैसे ही रहो जैसे महापुरुषों ने बताया है। दान-धर्म करते रहो और अनैतिकता का अन्मूलन करो, ऐसा करने से करुणा का जागरण होगा और करुणा हमें दयालु, दातार और दानवीर बनाती है।