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बीकानेर,साहित्य सृजन से लेखक की साख स्वत: बन जाती है। हमारे आदि कवि और लेखकों ने कभी अपनी सृजनात्मकता को साख, बनाने, ऐषणा, मान बड़ाई का टूल नहीं बनाया, बल्कि जो रचा समाज को समर्पित कर दिया। एक मेरे व्यंग्यकार मित्र गांव में रहकर चुपचाप साहित्यक साधना कर रहे हैं वो अपनी रचना को प्रसिद्धि दिलाने का कोई उपक्रम आयोजन, मेंजमेंट नहीं करते फिर भी जो उनके संपर्क में हैं उनके व्यंग्य, कविता, कहानी और अन्य कृतियों पर निगाहें रखते हैं। इंतजार करते हैं। उनकी रचनाओं पर देश भर के साहित्यकारों की नजरें रहती है। वे बिना बात अपनी सृजनात्मकता के गीत नहीं गाते। खुद को वरिष्ठ कवि, कथाकार, व्यंग्यकार नहीं कहते और न ही कहलाने के उपक्रम भी आयोजित करते हैं। फिर भी उनकी पूछ और प्रतिष्ठा है। साहित्यक संस्थाओं और लेखकों को प्रायोजित कर प्रशंसा के गीत गाने के वे सख्त विरोधी है। वे मानते है कि यही साहित्य और साहित्यकारों का पतन है कि उनको कहलाना और कहना पड़ता कि वे खुद वरिष्ठ कवि कथाकर हैं आप इसी गीत को गाओ। मंच बनाओ, व्यक्तिगत आग्रह से बुलाओ और हमारे कृतित्व को मान दो। दरअसल इससे ज्यादा उन रचनाओं का क्या अपमान हो सकता है जिस मान के लिए प्रायोजित मंच खुद को ही बनाना पड़े, खुद को ही अपनी मान बड़ाई के लिए लोगों से आने का व्यक्तिगत आग्रह करना पड़े। यह मान बड़ाई की ऐषणा खुद को समझ नहीं आती। सच में तो यह जग हंसाई है जो आगे प्रशंसा के पुल बांधते पीछे से कुछ ओर कहते हैं। कोई सच्चा लेखक क्यों लिखता है? स्वानुभूति के लिए या प्रशंसा चाहने के लिए ? देखो हमारी साहित्य सृजन कहां जा रहा है? मान बड़ाई की तरफ या सर्जना धर्म की तरफ?

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