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बीकानेर,बेरोजगारी बड़ा मुद्दा है। इस मसले को राजनीति में नहीं उलझाना चाहिए। आपसी बयानबाजी से एक दूसरे को नीचा दिखाने से कुछ हासिल नहीं होता। ईवीएम को गर्म करने के नेताओं के मंसूबों की कीमत हमेशा से बेरोजगार चुकाते आए हैं। रीट प्रकरण की पटकथा भी फिर से उसी अंदाज में लिखी जा रही है। विधानसभा में हंगामा, आरोप-प्रत्यारोप, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता है। राजस्थान जैसे शांत प्रदेश में नेताओं का यह आचरण निश्चित ही बेरोजगारों के लिए पीड़ादायक है। एक-दूसरे की बात को सुनने का माद्दा अब राजनेताओं में कम ही दिखाई देता है। जब जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों की बारी आती है, तो सदन के सब काम बड़ी आसानी से हो जाते हैं, पर जब सवाल रोजगार का आता है, तो सिर्फ हंगामा होता है। पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर अपना हित साध लेते हैं, पर डिग्रियों की माला पहने सड़कों पर रोजगार के लिए मारे-मारे भटक रहे नौजवानों पर इन्हें तरस नहीं आता है। विधानसभा की कार्यवाही, प्रश्नकाल, हंगामा, सीबीआइ जांच की मांग इन सब सियासती दांव-पेचों से बेरोजगारों का कोई वास्ता नहीं है। उन्हें तो सिर्फ रोजगार का रोडमैप चाहिए, जो नेताओं के पास शायद नहीं है।

यह बात माननी होगी कि बेरोजगारी के लिए राजस्थान में अकेली कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। भाजपा भी बीस साल सत्ता में रही, जो कि कोई कम अवधि नहीं है। वह भी युवाओं को रोजगार की झप्पी देने की कोई विशेष उपलब्धि अपने खाते में नहीं रखती है। अगर सरकार 10 दिन में भर्ती निकालकर छह माह में नियुक्तियां कर दे, तो यह एक बहुत बड़ी सौगात होगी। खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सदन में यह बात कही है। अब देखना यह है कि उनकी सरकार इसको अंजाम दे पाती है या नहीं। मंशा अच्छी होने भर से काम नहीं चलने वाला है। आवश्यकता है फूलप्रूफ सिस्टम बनाने की, ताकि कहीं किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहे। सरकार को इसका पूरा रोडमैप शीघ्र अतिशीघ्र बनाकर इसको अमलीजामा पहनाने की कवायद शुरू कर चाहिए। बेरोजगार नौजवानों के लिए यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न नहीं है कि रीट की जांच कौन-सी एजेंसी करे। महत्त्वपूर्ण यह कि उन्हें रोजगार मिले। इसका अर्थ यह भी नहीं कि जांच के नाम पर सिर्फ लीपापोती होकर रह जाए। जांच एजेंसियों को प्रभाव से मुक्त होकर अपने काम को अंजाम देना चाहिए।

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