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बीकानेर,नई दिल्ली,सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर किसी व्यक्ति पर आत्महत्या के लिए उकसाने या मदद करने का आरोप लगाया गया है, तो उसे तभी दोषी ठहराया जा सकता है जब उसने कोई ठोस कदम उठाया हो. सिर्फ अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होने या सामान्य व्यवहार के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती. सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति को प्रेम-प्रसंग में फंसाकर और पैसे के लिए ब्लैकमेल करके आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोपी परिवार के चार सदस्यों को बरी कर दिया.
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने 5 मार्च को यह फैसला सुनाया. मृतक ने एक सुसाइड नोट छोड़ा था, जिसे उसकी मौत के 20 दिन बाद पुलिस के सामने पेश किया गया था. सुसाइड नोट में दावा किया गया था कि अपीलकर्ताओं ने उसे एक अपीलकर्ता के साथ आपत्तिजनक तस्वीरों के ज़रिए ब्लैकमेल करके उससे पैसे ऐंठे थे. नोट में दावा किया गया था कि जब इसे बर्दाश्त करने में असमर्थ हो गया, तो उसने यह कठोर कदम उठाया.

पीठ ने कहा “यदि हम सुसाइड नोट को सही और वास्तविक मान भी लें, तो भी हमें मृतक द्वारा आत्महत्या करने की तारीख से पहले अपीलकर्ताओं की ओर से उकसावे का कोई कार्य नहीं मिलता है अपीलकर्ताओं द्वारा आत्महत्या के समय के निकट कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया जो इस प्रकार का हो कि मृतक के पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. ऐसी परिस्थितियों में, यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्ताओं के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई अपराध बनता है.”

क्या होता है ‘उकसाना’: पीठ ने कहा कि आत्महत्या के लिए उकसाने में किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर किसी काम को करने में मदद करने की मानसिक प्रक्रिया शामिल है. न्यायमूर्ति भुयान ने कहा कि आरोपी की ओर से आत्महत्या करने के लिए उकसाने या मदद करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई के बिना, दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती. इसके अलावा, धारा 306 आईपीसी के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए, अपराध करने के लिए स्पष्ट मानसिकता होनी चाहिए.
अमुधा बनाम राज्य (2024) का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि इस अदालत ने माना है कि मृतक द्वारा आत्महत्या करने की तारीख से पहले आरोपी की ओर से उकसाने का कार्य होना चाहिए. इसने कहा कि जिस कृत्य का आरोप लगाया गया है, वह न केवल आत्महत्या के समय के करीब होना चाहिए बल्कि इस तरह का भी होना चाहिए कि मृतक के पास आत्महत्या करने जैसा कठोर कदम उठाने के अलावा कोई विकल्प न बचा हो.

रमेश कुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2001) का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि इस न्यायालय ने माना है कि ‘उकसाने’ का अर्थ है आग्रह करना, उकसाना या कोई कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना. पीठ ने कहा, उकसाने की आवश्यकता को पूरा करने के लिए, यह आवश्यक नहीं है कि उस प्रभाव के लिए वास्तविक शब्दों का उपयोग किया जाना चाहिए या यह कि शब्द या कार्य आवश्यक रूप से और विशेष रूप से परिणाम का संकेत देने वाले होने चाहिए.
क्या है मामलाः मृतक की पत्नी ने 14 मई 2009 को गुजरात के मेहसाणा तालुका पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कराई थी. अभियोजन पक्ष के अनुसार, मृतक अपने घर पर मृत पड़ा मिला था. आस-पास के लोगों ने पत्नी को बताया कि उसने जहर खा लिया है. पत्नी ने कहा कि लगभग एक साल पहले, उसके पति के खिलाफ उसके कार्यालय में गबन का मामला दर्ज किया गया था. पति ने उसे बताया था कि उसके कार्यालय में चार आरोपियों में से एक सफाई कर्मचारी ने उसे प्रेम कांड में फंसा लिया था. ब्लैकमेल करना शुरू कर रहा था. पत्नी ने कहा था कि पति ने अपनी बेटी के गहने भी चुराकर आरोपियों को दे दिए थे, इसी वजह से जहर खा लिया.
ब्लैकमेल किये जाने का सबूत नहीं मिलाः पीठ ने कहा कि आरोपी व्यक्तियों से पुलिस द्वारा किसी भी आभूषण (आभूषण) की बरामदगी दिखाने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है. मृतक के हस्ताक्षरित चेक या चेक बुक या पासबुक बरामद नहीं की गई और न ही अदालत में प्रदर्शित की गई. ऐसी परिस्थितियों में, अभियोजन पक्ष के मामले का मूल आधार ही विफल हो जाता है कि आरोपी व्यक्ति मृतक को ब्लैकमेल करके अवैध लाभ कमा रहे थे. मृतक के घर से जहर की कोई बोतल बरामद नहीं हुआ.
गुजरात हाईकोर्ट का फैसला पलटाः सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय (दिसंबर 2013) और निचली अदालत (मई 2011) के फैसलों को खारिज कर दिया. निचली अदालत ने चारों आरोपियों को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया था और उन्हें पांच साल कैद की सजा सुनाई थी, जिसे उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।

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