बीकानेर। प्रेम की दो गतियां पहली अधोगामी और दूसरी उर्धगामी होती है। अधोगामी से मोह उत्पन्न होता है, मोह से वासना उत्पन्न होती है, इससे जीव का विनाश होता है। दूसरी उर्धगामी होती है। इसमें सेवा का भाव पैदा होता है, इससे त्याग की भावना उत्पन्न होती है। त्याग से शक्ति मिलती है और शक्ति हमें विकास की ओर ले जाती है। बंधुओं, आप बताएं, हमें विकास की तरफ जाना चाहिए कि विनाश की ओर, यह सद्विचार श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने मंगलवार को सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में नित्य प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। महाराज साहब ने बताया कि अधोगामी हमें यौन की तरफ और उर्धगामी हमें योग की तरफ ले जाता है। यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम किस और उन्मुख होते हैं। योग में आने के लिए हमें मन-वचन और काया से शुद्ध बनना होता है, यही योग का अर्थ है। यह शुद्ध हो तो वासना की हार होती है और साधना की जीत होती है। आचार्य श्री विजयराज महाराज साहब ने कहा कि हम जीत की राह पर चलते हैं तो हमें जीत की प्राप्ति होती है और जीत की राह शील का पालन है।
महाराज साहब ने आचार्य तुलसी का एक प्रसंग बताते हुए कहा कि एक बार किसी ने उनसे पूछा था कि नर बुरा है या नारी बुरी है। इस पर आचार्य तुलसी ने जो कहा वह मुझे भी बहुत अच्छा लगा, उन्होंने कहा कि ना नर बुरा है और ना नारी बुरी है, बुरी वासना है। आचार्य श्री ने कहा कि जो वासना पर विजय पा लेता है, वह शील को प्राप्त करता है और शील को प्राप्त करने वाला सत्य को पाता है। सत्य करने वाला धर्म को एवं धर्म को पाने वाला मोक्ष की ओर बढ़ता है।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने न्यूटन से जुड़ा एक प्रसंग सुनाते हुए कहा कि जब न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इससे पहले उसके मन में काम वासना उत्पन्न हो गई थी। उससे जब यह पूछा गया कि आपने यह कैसे किया तो न्यूटन ने स्वयं कहा कि मेरे अंदर वासना पैदा हो गई। उसने वासना को यौन के स्थान पर योग में लगा दिया और इस तरह से उन्होंने वासना पर विजय प्राप्त की थी। आचार्य श्री ने कहा कि जितने भी सांइटिस्ट हुए हैं, अविष्कारक हुए हैं, सबने अपनी वासना को त्याग कर यौन में ना लगाकर योग में लगाया तो वह सफल हुए।
महाराज साहब ने कहा कि हर व्यक्ति में अपार शक्ति होती है। लेकिन जब उसकी शक्ति यौन में चली जाती है, वह क्षीण होने लगती है, इसलिए हमें अपनी शक्ति को यौन में नहीं योग में लगानी चाहिए। इससे शील का पालन होगा और हमें यह विकास की ओर ले जाएगी। आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने सबसे श्रेष्ठ संस्कार शील को बताया और कहा कि जीवन में शील नहीं है तो संस्कार नहीं फलते, फलते नहीं तो बढ़ते नहीं है। शील से संस्कार मिलते हैं और शील सुरक्षित है तो संस्कार सुरक्षित है। लेकिन आज संस्कारों पर रोज हमला हो रहा है। इन संस्कारों पर हमला कौन कर रहा है…?, तकनीकि विकास टीवी, मोबाइल, नेट, इन्टरनेट सब संस्कारोंं पर हमला कर रहे हैं। पहले हम फिल्म देखने के लिए सीनेमा हॉल में जाते थे। लेकिन अब सीनेमा हॉल में छोड़ो, कमरे में आ गया, हाथ में आ गया है। यह ठीक नहीं है। आजकल बच्चे जरा सा भी कुछ करते हैं, रोते हैं,या इधर-उधर होने को होते हैं कि मां-बाप बच्चों को झट से मोबाइल पकड़ा देते हैं। यह अच्छे गुण नहीं है। अच्छे, सदाचारी, संस्कारी माता- पिता तो बच्चों को सीने से लगाते हैं। उनके दुख दूर करते हैं। बच्चा भी आपसे यही तो चाहता है। बच्चा आपका स्नेह चाहता है। विकास चाहता है, और आप क्या कर रहे हैं, उसके हाथ में मोबाइल थमा देते हैं। अरे, यह संस्कारों पर सबसे बड़ा हमला है। इनकी आड़ में बच्चे क्या-क्या देखते हैं, यह कह नहीं सकता। संचार क्रान्ति के नाम पर यह बहुत बड़ी भ्रान्ति चल रही है। इससे समय रहते सावधान ना हुए तो आने वाली पीढ़ी का भविष्य खतरे में है। अगर आपने अपने आप पर नियंत्रण कर लिया तो अपने आप को सुरक्षित रखने वाले बन जाएंगे।
आचार्य श्री ने जवाहराचार्य महाराज के प्रवचन में राजस्थान के रणबांकुरों और बंधाचावड़ा नामक सूरवीर, शक्तिमान के पिता का प्रसंग बताते हुए कहा कि अगर आप चाहते हैं कि हमारी संतान भगवान महावीर जैसी, आचार्य नानेश जैसी, भगवान राम जैसी पैदा हो तो उसके लिए शील का तप करना पड़ता है। आज के समय में यह असंभव कार्य सा हो गया है।
आचार्य श्री ने साता वेदनीय कर्म के पांचवे बंध शील का पालन पर व्याख्यान देते हुए कहा कि धर्म को अपना मानो, पराया मत समझो। आज हमारे अंदर धर्म की दृढ़ता का अभाव आ गया है। धर्म हमारे इस लोक में, परलोक में सुखदायी है। धर्म ही हमारे सुख की कामना कर सकता है। धर्म-ध्यान नहीं करोगे तो क्या करोगे..?,धर्म के प्रति आपकी आस्था, दृढ़ता का परिक्षण का समय आ गया है। पर्युषण के पर्व में धर्म की परीक्षा होगी। धर्म करोगे तो कर्म कटेगें। जो चौबीस घंटे पाप का मीटर चलाते हैं, उन्हें पहले पाप का मीटर बंद कर धर्म का मीटर चालू करना होगा। प्रवचन के अंत में आरंभ में गाए भजन ‘नर तन चोला मिला है तुझको, बार- बार नहीं पाना, जीवन सफल बनाना, जीवन का नहीं पल का भरोसा, नाम अमर कर जाना, जीवन सफल बनाना’, को पूर्ण कर आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने प्रवचन को विराम दिया।