बीकानेर, यहां चल रहे राष्ट्रीय संस्कृति महोत्सव के तहत गुरुवार को विजयदान देथा लिखित कहानी ‘दुविधा’ (माई री मैं का से कहूँ) पर आधारित नाटक के मंचन ने सुधी दर्शकों को नारी की इच्छाओं और सामाजिक मर्यादाओं के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया। दरअसल, यह स्त्री की इच्छा और उसकी भावनाओं पर लगे सामाजिक मर्यादा के पहरे के बीच की कथा है। आज के इस प्रगतिशील समाज के सामने जो की स्त्रियों को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर चलने और सामान अधिकार प्रदान करने की बात करता है, वहीं लेखक के शब्दों में विडम्बना है कि लुगाई की अपनी मर्जी होती ही कहां है! यह प्रस्तुति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, रंगमहल, नई दिल्ली की रही।
यह नाटक सोचने पर मजबूर करता है कि विज्ञान और बुद्धि के उत्कर्ष पर पहुंचने का दावा करने वाले इस समाज में स्त्री आज भी अपनी मानसिक और शारीरिक अधिकारों के इस्तेमाल के लिए स्वतन्त्र नहीं है बल्कि उसे अपनी हर इच्छा-अनिच्छा को पुरुष प्रधान विचारों से तोलना पड़ता है। स्त्री का समूचा व्यक्तित्व, समूचा अस्तित्व कब से दो हिस्सों बंटा हुआ है। जन्म से लेकर विवाह तक उसके सारे अधिकार उसके माँ बाप के पास होते हैं और विवाह के बाद पति और बच्चों के पास।
इस नाटक का निर्देशन और संगीत अजय कुमार का रहा। इस मौके पर रेपेटोरी के चीफ राजेश सिंह भी मौजूद रहे।