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बीकानेर। दुख को कौन बढ़ाता है..?,  महापुरुष फरमाते हैं कि जो द्वेषपूर्वक  दुख को भोगता है, वह दुख को बढ़ाता है। जीवन में जब भी दुख आता है हम उसके साथ द्वेष को भी जोड़ देते हैं। इससे दुख बड़ा बन जाता है और अगर हम दुख को नजरअंदाज कर देते हैं, उसकी उपेक्षा करने लगते हैं तो वह अपने आप घटने लग जाता है। लेकिन हम उसकी उपेक्षा नहीं करते हैं और द्वेष करना शुरू कर देते हैं। इससे दुख ताकतवर बनता है, दुख को ताकतवर ना बनाएं। यह सद्विचार श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने सोमवार को सेठ धनराज जी ढढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे चातुर्मास पर नित्य प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। आचार्य श्री ने कहा कि हम किसी से ज्यादा उपेक्षा या अपेक्षा रखते हैं, उसका वैसा ही परिणाम मिलता है। हमें निरपेक्ष रहना चाहिए। यह नियम दुख पर भी लागू होता है। महापुरुष कहते हैं कि जीवन में दुख तो आएगा ही क्योंकि हमने असाता वेदनीय कर्म का बंध कर रखा है। इस जन्म में नहीं किया है तो पूर्व जन्म में किया होता है। उसका फल तो व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है। महाराज साहब ने कहा कि मरता तो शरीर है, आत्मा मरती नहीं और वह अपने कर्म की गठरी लिए इस जन्म से उस जन्म में घूमती रहती है और कर्मों का फल भुगतती रहती है।
महाराज साहब ने कहा कि महापुरुषों के जीवन में भी बड़े-बड़े दुख आए हैं। उन्होंने उन दुखों को हंसते-हंसते झेला है। हमें भी दुखों को हंसते-हंसते झेलना चाहिए। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि जिस प्रकार चलते हैं तो पदचिन्ह बनते हैं। ठीक वैसे ही कर्म करेंगे तो उसकी क्रिया- प्रतिक्रिया तो होगी ही होगी। इसलिए दुख में भी समभाव रखने का प्रयास करें। आचार्य श्री ने कहा कि सुखी वही रह सकता है जो किसी को सुख देता है। आप किसी को दुख देकर सुख की आशा कैसे कर सकते हैं। महाराज साहब ने अपने अंतर्मन की आवाज बताते हुए कहा कि अगर आप किसी को दुख देकर सुख चाहोगे तो  आपको सुख नहीं मिलेगा। दुखी समय के साथ सुखी हो सकता है लेकिन दुख देने वाले कभी सुखी नहीं हो सकते हैं। अगर हम किसी को दुख दे रहे हैं तो फिर उससे सुख की आकांक्षा ना रखें।
महाराज साहब ने बौद्ध दर्शन के  बारे में बताते हुए कहा कि महात्मा बुद्ध ने चार  आर्य सत्य बताए हैं। पहला दुख है, दूसरा दुख का कारण है, तीसरा दुख मुक्ति है और चौथा दुख मुक्ति के उपाय हैं तथा यही दुख मुक्ति सुख है।
जीवों के प्रति दया भाव रखो
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने चातुर्मास का महत्व बताते हुए जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखने की बात कही। महाराज साहब ने कहा कि हमें छह कायों के जीवों की दया मैत्री भाव रखना चाहिए। अराधक वो है जो जीव को जीव मानकर चलता है। जो यह मानता है कि जीव में शिव है, वह हिंसा नहीं करेगा। इसलिए भावों को शुभ रखिए, भाव शुभ रखेंगे तो शुभ कर्म का बंधन होगा। प्रकृति, अहिंसा और जीवदया यह भारत में ही संभव है और जैन धर्म में तो है ही है। क्योंकि जैन धर्म जीव दया को मानता है और यह भी मानता है कि प्रकृति के साथ जितनी छेड़छाड़ होगी, उतना प्रकृति का विनाश होगा और जितना विनाश होगा उतनी ही प्रतिकूलता आएगी। इसलिए प्रकृति का जीवन भी संतुलित बनता है अगर हम भगवान महावीर के सिद्धान्तों का पालन करते हैं।
श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजय कुमार लोढ़ा ने बताया कि महाराज साहब ने नित्य प्रवचन के बाद संघ निष्ठा में महत्ती भूमिका निभाने वाले चितौड़ से पधारे प्रकाश पोखरना, राजनंदगांव से विवेक सुराणा और मैसूर से पधारे प्रकाशचंद जी का परिचय उपस्थित श्रावकों से करवाते हुए उनकी संघ के प्रति निष्ठा को लेकर किए गए कार्यों का परिचय दिया और आशीर्वाद देकर संघ के कार्य निष्ठापूर्वक करते रहने की बात कही। नित्य प्रवचन के बाद तपस्या करने वालों को आशीर्वाद दिया। मांगलिक एवं णमो अरिहंताणम् पाठ के साथ धर्मसभा को विराम दिया।

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