बीकानेर,भारतीय जीवन संस्कृति में संत महात्मा पैदल विहार कर जन जन में आध्यात्मिक चेतना, जीवन मूल्य और मानवीय संस्कारों का बीजारोपण करते हैं। आचार्य महाश्रमण सद्भावना, नैतिकता एव नशा मुक्ति के संकल्पो का जन जन को संदेश दे रहे हैं। महाश्रमण ने आठ वर्षों पहले बीकानेर से विहार कर तीन देशों और भारत के 27 राज्यों में मानवता, सत्य, अहिंसा की ध्वज पताका फहराई हैं। आज वे पुन: बीकानेर आए हैं। आचार्य महाश्रमण और तेरापंथ धर्म संघ का आध्यात्मिक प्रभाव का आकलन करें तो पाएंगे कि जहां भी आचार्य गए है मानवता की सीख, सत्य अहिंसा का संदेश और आध्यात्मिक चेतना की अलख जगाकर आए हैं। 27 राज्यों में से 9 राज्य में आचार्य महाश्रमण की पद यात्रा के दौरान समाज पर मनोवैज्ञानिक आकलन में पाया गया है कि जो भी आचार्य महाश्रमण की यात्रा के संपर्क में आए आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति की। उनके कथन को सुना है। समाज में संत की वाणी चेतना के केंद्र बिंदु में रही। हर समाज के लोगों यथा साध्य स्वागत किया है। निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो आचार्य महाश्रमण ने समाज में संस्कार, सत्य, अहिंसा और मानवता का संदेश दिया और इसकी विभिन्न स्तरों पर ग्राह्यता रही। आचार्य और तेरापंथ धर्म संघ की परस्परता को देखें तो गंगाशहर धर्म संघ का बड़ा क्षेत्र है। यहां धर्म संघ को जीवन समर्पित करने वाले श्रावक खेम चंद जी सेठिया, धर्म चंद जी चोपड़ा बाद की पीढ़ी में भंवर लाल जी डागा , कन्हैया लाल जी फलोदिया आदि रहे हैं आज धर्म संघ में ऐसे समर्पण वाले कितने लोग हैं? धर्म संघ में वर्चस्व दिखाने वाले ज्यादा और समर्पण भाव से काम करने वाले लोगों की कमी नहीं है ? जो आचार्य श्रम और साधना से समाज को दिशा दे रहे हैं उनके आचार्यत्व में धर्म संघ कितना उन्नति कर रहा है। मंथन करने का विषय है।आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ जो समाज को शिक्षित करके गए हैं वे संस्कार समाज में आज भी जिंदा है। क्या धर्म संघ के व्यवहार में यह नहीं झलकता कि महावीर को मानते हैं महावीर की नहीं मानते। भाव धर्म संघ के आलोचना का नहीं है। आत्मविश्लेषण का है। महाश्रमण जी का संदेश है कि धर्माचरण से अच्छे श्रावक बने।
अहिंसा यात्रा प्रणेता युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने बीकानेर परिक्षेत्र में कहा – मानव जीवन का परम लक्ष्य क्या है? यह चिंतन हमारे भीतर होना चाहिए। मोक्ष हमारा परम लक्ष्य है। अध्यात्म की दृष्टि से मोक्ष सर्वोच्च स्थिति होती है। मोक्ष में किसी प्रकार का कोई दुख नहीं कोई तकलीफ नहीं केवल सुख ही सुख होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए कषाय मुक्ति की साधना जरूरी है। क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषाय मोक्ष की राह में बाधक है।
आचार्यश्री ने श्रावकों को संदेश दिया है कि किसी को अपने ज्ञान, पद, पैसे का घमंड हो सकता है। पर घमंड किस बात का। जब मृत्यु होती है तो सब यही रह जाता है। किसी के बारे में दुर्वचन, चुगली आदि भी नहीं करनी चाहिए। जीवन में जितने सद्गुण होंगे उतना ही जीवन उत्तम बन सकेगा। हर कोई सन्यासी नहीं बन सकता पर गृहस्थ होकर भी जीवन में धर्माचरण कर अच्छे गृहवासी बनने का प्रयास करे।
आचार्यश्री का यह संदेश हर व्यक्ति को मानने योग्य है। अनुयायी और श्रावकों को तो मानना ही चाहिए। धर्म संघ के पदाधिकारियों के आचरण में हो। अगर ऐसा नहीं होगा तो आचार्य और साधु साध्वी की तपस्या का धर्म संघ के लिए कैसा संदेश बाकी समाज में जाता है। समझने की जरूरत है।