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बीकानेर,श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने मनुष्य जीवन में चार बातें अमूल्य बताई हैं। इनमें पहली बात मनुष्य की इज्जत, दूसरी स्त्री का शील, तीसरी माता का प्रेम और चौथा पिता का कर्तव्य है। साथ ही कहा कि जिनका कोई मूल्य नहीं होता, उसे अमूल्य कहा जाता है। जैसे आदमी मूल्य देकर पहनने के कपड़े, जूते, चप्पल, सोना- चांदी खरीद सकता है लेकिन मनुष्य की इज्जत अमूल्य है, इसे पैसों से नहीं खरीद सकते। आचार्य श्री ने कहा क इज्जत तो सदाचार से बनती है। अगर जीवन में सदाचार है तो इज्जत है। दुराचारी की कोई इज्जत नहीं होती और बगैर सदाचार के हम इज्जत नहीं बना सकते।
दूसरी अमूल्य बात है नारी का शील, शीलवती नारी भी अमूल्य होती है। शीलवती नारी का शील ही उसे आदर, सम्मान दिलाता है। तीसरा माता का प्रेम होता है। प्रेम शब्द का उच्चारण करते ही  मां याद आती है या फिर महात्मा और फिर परमात्मा की याद आती है। मां का प्रेम निश्च्छल होता है। चौथा पिता का कर्तव्य, जो कर्तव्य पालन अपनी संतान के लिए एक पिता करता है, वह कोई अन्य नहीं कर सकता। इसलिए यह चार चीजें महापुरुषों ने अमूल्य बताई है और यह हमें प्राप्त हो जाती है लेकिन कब…?, जब हमारे जीवन का व्यवहार सुधरता है।
महाराज साहब ने श्रावक-श्राविकाओं से प्रश्न किया कि क्या आपको जीवन में रस या आनन्द आ रहा है। फिर उनके मन की जिज्ञासाओं को शांत करते हुए कहा कि बहुत कम व्यक्ति जीवन का रस ले पाते हैं। अधिकांश तो केवल जीने के लिए जीते हैं। उन्हें आनन्द की अनुभूति नहीं होती है। क्योंकि उनकी दृष्टि में आनन्द है ही नहीं, जब दृष्टि में आनन्द होगा तो जीवन में आनन्द की अनुभूति होगी। वहीं साधक सदैव आनन्द में रहता है, वह जीने का आनन्द लेता है और जीने का आनन्द व्यवहार में सुधार से आता है। महाराज साहब ने कहा कि आज देखते हैं, हमारा व्यवहार कैसा हो गया है। आज हम शुद्र व्यवहार करते हैं। हमारा व्यवहार सिकुड़ता जा रहा है। हमें अपने व्यवहार को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। आपका व्यवहार अच्छा होगा तो लोग आपकी प्रशंषा करेंगे, आपका आदर और सम्मान करेंगे, आपकी इज्जत होगी। जीवन में सदाचार रखना चाहिए, सदाचार भी शील है। महाराज साहब ने कहा ‘शीलवन्ता, गुणवन्ता’ जो शीलवान होते हैं, वही गुणवान बनते हैं। भगवान महावीर ने कहा है कि काम वासना शूल के समान है, जो किसी के दिल में  चुभ गई, जब तक नहीं निकलती तब तक चुभने  वाले के जीवन में परिवर्तन नहीं आता। उसके सोच में, विचारों में परिवर्तन नहीं आता। सांप- बिच्छु का काटा तो थोड़ी देर में जहर उतर सकता है लेकिन काम वासना का जहर लग जाए तो व्यक्ति संयम पथ पर नहीं चल सकता। महाराज साहब ने वैराग्य भाव के प्रति हुक्मगच्छ के  पंचम पट्टधर श्री लाल जी महाराज साहब का एक प्रसंग सुनाकर उनके संयम मय जीवन की एक घटना का वर्णन किया।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि  जिस प्रकार अंधेरा और रोशनी, दिन और रात साथ नहीं चल सकते ठीक वैसे ही वासना और वैराग्य साथ नहीं चलते। वैराग्य का भाव जब मन में पैदा होता है वासना स्वत: ही समाप्त हो जाती है और जब तक वासना का भाव बना हुआ है, वैराग्य की प्राप्ति संभव नहीं है। इसलिए अपने मन में वासना के विकार को दूर करना चाहिए। महाराज साहब ने कहा कि इसके लिए सर्वप्रथम अनुशासन की आवश्यकता होती है। अगर आपका स्वयं पर नियंत्रण है तो आप में अनुशासन आ सकता है, आप सुख के भागी  हो सकते हैं।
महाराज साहब ने कबीर और नवयुवक का एक प्रसंग बताया कि एक नवयुवक कबीर के पास गया। उसने कबीर का बहुत नाम सुन रखा था। इसलिए वह उनके पास जाकर बोला कि मेरा एक सवाल है, उसका जवाब चाहिए। कबीर उस वक्त चरखे में सूत कात रहे थे। दिन का समय था। युवक बोला मैं शादी करुं या नहीं..?, इस पर कबीर कुछ ना बोले, इसके बाद दो-तीन बार उसने यह क्रम दोहराया पर कबीर ने जवाब ना दिया। इसके बाद कबीर ने अपनी पत्नी को आवाज देकर बुलाया। उस वक्त वह घर का काम कर रही थी। वह आई तो बोले कि मेरा गमछा नहीं मिल रहा, कताई की मशीन साफ करने वाला, जरा ढंढूो तो, इतना कहते ही वह यहां-वहां उसे ढूंढने में लग गई। युवक सब देख रहा था। इतने में कबीर बोले, जाओ लालटेन लेकर आओ, वह लालटेन ले आई और अब कपड़ा ढूंढ रहे थे कि इतने में पुत्र आ गया। पुत्र ने पूछा क्या हुआ पिताजी, कबीर ने कहा बेटा मेरे चरखे को साफ करने वाला कपड़ा कहीं खो गया। अब पुत्र भी ढूंढने लग गया। युवक ने सोचा लगता है कबीर का दिमाग हिला हुआ है, इसके साथ पूरा परिवार ही हिला हुआ लग रहा है। दिन के उजाले में लालटेन लेकर कपड़ा ढूंढ रहे हैं। यह सोच ही रहा था कि कबीर ने कहा अरे रहने दो, कपड़ा  मिल गया, मेरे कंधे पर ही पड़ा था, ध्यान ही नहीं गया। सब अपने काम में लग गए। कबीर ने युवक से कहा कुछ समझे क्या..?, युवक ने असमर्थता जताई। इस पर कबीर ने बताया कि शादी करो लेकिन आज्ञाकारी पत्नी मिले तो शादी करना, सुख ही सुख है, नहीं तो दुख ही दुख उठाना पड़ेगा। फिर कहा साधु की बात है तो चलो वह भी बताते हैं। यह कहकर शहर से बाहर एक पहाड़ पर साधु जहां कुटिया बनाकर रह रहे थे, नीचे खड़े होकर आवाज लगाई, महात्मन…ओ महात्मन, यह सुनकर महात्मा झोंपड़ी से बाहर आए, नीचे झांककर देखा तो कोई खड़ा है। इस पर उतर कर नीचे आए और पूछा कैसे आना हुआ। इस पर कबीर बोले ना, यूं ही दर्शन के लिए आ गए। इस प्रकार कबीर ने हर थोड़ी-थोड़ी देर से महात्मा को आठ बार आवाज लगाई और हर बार वे नीचे आए तब उन्हें कबीर ने वही जवाब दिया कि ना, केवल दर्शन के लिए आए हैं। इसके बाद उन्होंने युवक से पूछा कि कुछ समझे..?, युवक ने ना में सर हिलाया तो कबीर बोले अगर इतना संयम हो तो साधु बनना। मैंने तुम्हें तुम्हारी दोनों बातों का उत्तर दे दिया है। महाराज साहब ने कहा कि मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि साता और असाता आदमी के स्वयं के हाथ में है। साता चाहिए तो साता वेदनीय कर्म का बंध करो,साता ही मिलेगी। अगर बंध नहीं किया तो असाता तो मिलेगी ही मिलेगी।
महाराज साहब ने कहा कि भारतीय जीवन के दो आदर्श को अपना लो, जीवन में आपकी सदैव प्रशंषा होगी, मान-सम्मान होगा और इज्जत मिलेगी। पहली यह कि हर नारी को माता समान समझना और दूसरा पर धन को धूल समझना। यह मानसिकता अगर आपकी बन गई है तो आप अपने शील, सदाचार और इज्जत को बढ़ाते हैं। वहीं हर नारी को पर पुरुष में अपने पिता और भाई का रूप देखना चाहिए, अगर आपने यह देखा है तो आपकी वासना शांत हो जाती है। महाराज साहब ने जम्बुकुमार का प्रसंग सुनाते हुए शील पर विजय पाने का उनका बड़ा आदर्श जो उन्होंने प्रस्तुत किया उसका वर्णन किया। प्रवचन के आरंभ और मध्य तथा अंत में महाराज साहब ने अपने प्रिय भजन ‘      जीवन रो…जीवन रो….जीवन रो व्यवहार सुधारे, तो जीणे रो रस आवे’ जीवन थारो गहरो सागर, हीरे मोत्यां रो गागर, गहरे उतरे तो पावे, तो जीणे
रस आवे सुनाकर सभी को भाव-विभोर कर दिया। प्रवचन विराम से पूर्व महाराज साहब ने नित्य क्रम में उपवास और तप करने वालों को आशीर्वाद दिया। बाहर से आए अतिथियों का परिचय उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं को देकर उनकी धर्म-ध्यान में आस्था के बारे में अवगत कराया।

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