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बीकानेर,ऊँट की खाल पर चित्रांकन एवं नक्काशी को उस्तां-कला कहा जाता है। राजस्थान के बीकानेर क्षेत्र में शिल्पकारों द्वारा ऊँट के चमड़े पर चित्रकारीबीकानेर की उस्तां-कला ने देश ही नहीं विदेशों में भी अपनी पहचान बनाई है। यहां के कलाकारों में इस कला के प्रति अगाध प्रेम एवं ऐसा जुनून है कि वे एक से एक कलात्मक वस्तुओं का निर्माण कर शिल्प कला प्रेमियों के अचंम्भित कर रहे हैं।

बीकानेर के कलाकार चमड़े की एक ढ़ाल पर सुनहरी नक्काशी के लिए गिलहरी के पूंछ से बने ब्रश का प्रयोग करते हैं। घीया पत्थर, सरेस, चपड़ी, मैथी के पानी के घोल और राख जैसी पारम्परिक सामग्री के जरिये चमड़े की ढ़ाल पर एम्बास का सफल प्रयोग किया जाता है। ऊँट की खाल से आकर्षक कुप्पे-कुप्पी, टेबल-लेम्प, सुराही आदि भी बनातें हैं।ऊँट की खाल पर मीनाकरी की सबसे उत्कृष्ट मीनाकारी में ताराबन्दी व नक्काशी का काम होता है। आसमान में झिल-मिलाते तारों की ही तरह खाल पर सुनहरी ताराबंदी की जाती है। इन कलाकारों का कम से कम स्थान पर चित्रकारी या फूल पत्तियों का बारीक व श्रमसाध्य काम नक्काशी कहलाता है।

यहाँ के कलाकार मारवाडी तथा मुगल शैली में आपना सुनहरा चित्रांकन करते हैं। कुछ कलाकार महीन जाली एवं विभिन्न सुनहरी फूल-पत्तियों से सजे झरोखों में राजपूती आन-बान से युक्त मारवाड़ी शैली को चित्रित करते हैं, जबकि कुछ कलाकार सुराहियों एवं ढ़ालों पर कँगूरे, बेल-बूॅंटे, फूल-पत्तियाँ आदि मुगल शैली को बखूबी उकेरते हैं।इन कलाकारों द्वारा चमड़े पर की जाने वाली चित्रकारी में चमड़े पर उभरा काम परम्परागत रूप से तैयार पीली मिट्टी से तैयार किया जाता हैं। सर्वप्रथम पीली मिट्टी को बारीक पीसकर तीन बार मलमल के कपड़े से छानते है फिर उसमें गुग्गल, शक्कर, गोंद और मैथी का पानी मिलाया जाता है। गिलहरी के पूॅंछ के बालों से बने ब्रश से इस लेप को आकृति के वांछित स्थानों पर सावधानी पूर्वक लगाया जाता है।

लेप की यह प्रक्रिया तीन बार तक दोहराई जाती है। पूर्णतया सूखने के बाद ही पीली मिट्टी से लेपन पर सुनहरी काम किया जाता है। सुनहरी चित्रकारी का यह काम मुख्यतः सुनहरी रंगों की बजाय सोने के बर्क से किया जाता है। बर्क लगाये जाने वाले स्थान पर गोंद के लेपन द्वारा उस स्थान को गीला करते हैं। तत्पश्चात् ऊँगली से बर्क के टुकड़े उठाकर वांछित आकृति पर चिपका दिया जाता है। इसमें विशेषता यह है कि सुनहरी काम पूरा हो जाने के बाद ही अन्य रंग भरे जाते हैं।

बीकानेर के तत्कालीन महाराजा ने ऊँट की खाल पर चित्रकारी करने वाले कादरबक्श एवं हिसामुद्दीन को भरपूर संरक्षण दिया था। इन कलाकारों ने उस्ता कला को नित नए आयाम दिए। तत्पश्चात् अन्य कलाकरों ने भी ऊँट की खाल से बनी ढ़ाल, सुराही आदि पर अपनी कला को मुखरित कर परिष्कृत किया। किसी समय में चमड़ा-निर्मित वस्तुएँ देश में ही नहीं अपितु विदेशी बाजारों की आकर्षक माँग बन गई।

बीकानेर के मोहम्मद असगर उस्तां के दादा इलाही बख्श उस्तां स्वयं सुप्रसिद्ध जर्मन चित्रकार स्व. ए. एच. मूलर के शिष्य रहे तथा बीकानेर राजघराने में लगभग तीस वर्ष तक उनके निजी चित्रकार के रूप में काम किया। उनके द्वारा बनाया स्व. गंगासिहजी का एक चित्र संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय में लगा हुआ है। ऊँट की खाल पर चित्रकारी की यह कला इन्हें विरासत में मिली हैं। इस विशिष्ट कलाकार की जाति उस्तां होने से यह कला उस्तां-कला के नाम से जानी जाती है।

बीकानेर की उस्तांकला का आगमन ईरान से हुआ तथा मुगलकाल में पल्लवित होती हुई यह भारतीय सँस्कृति में आत्मसात हुई। बीकानेर के तत्कालीन शासक राजा रायसिंह ने अपने राज्य में सर्वप्रथम सात उस्तां कारीगरों को बुलाकर प्रश्रय दिया था। उस्तां कला को राजकीय प्रश्रय मिलने से कलाकारों को मिली प्रेरणा व प्रोत्साहन ने उस्तांकला को आसमान की बुलंदी पर पहुँचा दिया।

इन कलाकारों ने अपनी कला को नित नये आयाम दिये एवं राजा महाराजाओं के किले-महल परकोटों पर अपनी उत्कृष्ट कला को सजाया। जूनागढ़ का अनूप महल, चन्द्रमहल, करण महल तथा फूल महल में आज भी इन पारम्परिक कलाकारों की पारम्परिक चित्रकारी के आयाम नजर आते हैं।

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