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बीकानेर,थार रेगिस्तान की लोक-संस्कृति में ऊंट अभिन्न रूप से समाविष्ट रहा है। भारतीय संस्कृति और विरासत में ऊंटों का व्यापारिक, सामरिक और प्रशासनिक अनुशीलन होता रहा है। उनकी भूमिका राजस्थान समेत कई अन्य प्रांतों में प्रचलित अमर प्रेमाख्यानों ‘ढोला-मारू रा दूहा’ और ‘मूमल-महेंद्र’ आदि में भी देखा जा सकता है।यहां अगर ऊंटों की भागीदारी नहीं होती तो इन लोककथाओं में चित्रित प्रेम अपने उदात्त स्वरूप को कभी प्राप्त नहीं करता। इसी प्रकार महलों या गांव की हवेलियों में बने भित्तिचित्रों में सजे-संवरे ऊंटों पर प्रेमियों को बैठ कर या साथ-साथ जाते हुए प्रदर्शित किया गया है। कला के शुरुआती दौर में प्राकृतिक रंगों से बने ये चित्र अपनी अद्भुत छटा बिखेरते हैं। इसी प्रकार के तथ्य राजपूताना पेंटिंग में भी देखे जा सकते हैं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी ऊंटों की भूमिका सराहनीय रही। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ही अनेक जगहों पर ऊंटों की ब्रिगेड बनाई गई थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही शेखावाटी के डूंगर सिंह और जवाहर सिंह ने शेखावाटी ब्रिगेड से रिसालेदार की नौकरी छोड़ दी। इन्होंने ऊंटों की अपनी एक ब्रिगेड़ बना ली थी। इन स्वातंत्र्य वीरों ने 18 जून, 1847 को सैनिक छावनी नसीराबाद पर आधी रात को आक्रमण कर वहां के प्रहरियों में से छह को मार दिया और सात को गिरफ्तार करके बक्षीखाने के कोष से बावन हजार रुपए और घोड़े लूट लिए। उस समय उनके पास सौ ऊंट और चार सौ घोड़े थे।समाज में तो ऊंटों की महत्ता सदा से सिद्ध रही है। लगभग पांच लाख राईका-रैबारी जनजाति ऊंटों के प्रजनन, पशुपालन और उनकी बिक्री से जीविकोपार्जन करते हैं। राईका-रैबारियों की अनोखी संस्कृति और संगीत ऊंटों के जीवन से बुना हुआ है। ऐसी मान्यता है कि राईका और उनके ऊंट अकाल-धकाल की भाषा में परस्पर बातचीत करते हैं।

इसी प्रकार लोकदेवताओं का गायन करने वाली भोपा जाति पाबूजी की फड़ और देवनारायण की फड़ गाकर जीविकोपार्जन करते हैं। इनके अलावा अनगिनत हाशिए पर जीवन-यापन करने वाले लोगों के जीविकोपार्जन का साधन भी ऊंट रहा है। कृषि, सिंचाई, ढुलाई, विवाह, त्योहार यातायात आदि सभी जगहों पर ऊंटों ने अतुलनीय योगदान दिया है। मगर प्रगति की अंधी दौड़ में शामिल समाज ने ऊंटों के प्रति न्याय नहीं किया। राजस्थान के मेलों और कार्यक्रमों में इसे देखा जा सकता है।

ऊंटों को राजस्थान सरकार ने राजकीय पशु घोषित किया है। राजस्थान ऊंट कानून 2015 (वध निषेध तथा अस्थायी निर्वासन या निर्यात नियमन कानून) ने ऊंट संरक्षण और ऊंट पालकों को प्रोत्साहित किया, पर इसने परोक्ष रूप से और कहीं-कहीं प्रत्यक्ष रूप से आजीविका और व्यापार दोनों को ही घाटा पहुंचाया। ऊंट पालन लोगों के लिए अब घाटे का सौदा बन गया है। मरुस्थल का जहाज कहा जाने वाला ऊंट वक्त की मार झेल रहा है।

आज स्थितियां विपरीत हैं। यह रेगिस्तानी इलाकों में आम जन-जीवन का अभिन्न अंग तो रहा ही है, संबंधों का भी निर्वाह इसने बखूबी किया है। पुराने समय में व्यापारी मालगोदामों से अपने माल ऊंट-गाड़ियों से मंगवाते थे। ऊंटों और ऊंट-गाड़ियों द्वारा माल ढुलाई रेगिस्तान में व्यापारियों को आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक जोड़ता था। ऊंट लोगों के घरों में मान-सम्मान और प्रतिष्ठा के मानक हुआ करते थे।

राजस्थान के अधिकतर क्षेत्रों में साठ दशक तक प्राय: सभी थानों में पुलिस ऊंटों का ही वाहन के रूप में उपयोग करती थी। उस समय जीपें या कारें बहुत सीमित हुआ करती थीं। गांव-ढाणी सड़क से नहीं जुड़े थे। उस समय नियुक्त होने वाले एसडीएम, कलेक्टर आदि ऊंट पर बैठ कर ही जिलों का दौरा किया करते थे। आज शायद ही कोई अफसर हो, जो ऊंट की सवारी करना जानता हो। आज केवल राजस्थान-गुजरात से सटी पाकिस्तान सीमा पर सीमा सुरक्षा बल के गश्ती दल के पास ऊंट आधारित वाहिनी है।

स्वतंत्र भारत में सन 1951 में बीकानेर राज्य कैमल कार्प्स को जैसलमेर राज्य की ऊंट वाहिनी में मिला दिया गया और यह गंगा जैसलमेर रिसाला बन गया। इस प्रकार यह तेरहवीं बटालियन ग्रेनेडियर्स का हिस्सा बना, जिसने भारत-पाकिस्तान युद्ध में बीकानेर और जैसलमेर सेक्टरों में सैन्य कार्यवाहियों द्वारा पाकिस्तानी हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया। 1975 के बाद भारतीय सेना की कैमल कार्प्स को समाप्त कर दिया गया। पर बीएसएफ का बीकानेर कैमल कार्प्स अब भी मौजूद है, जिसके जरिए गंगा रिसाला अभी जीवित है। हालांकि इसका उपयोग मुख्य रूप से समारोह के उद्देश्यों से ही होता है।

जब तक ऊंटों का आर्थिक क्रियाकलापों में समावेश बदलते समय के हिसाब से नहीं हो पाएगा, तब तक ऊंटों की घटती और लुप्त होती संख्या पर विराम लगाना बहुत कठिन है। इस स्थिति में ऊंट महज ऊंट पोलो, ऊंट दौड़ या राष्ट्रीय स्वतंत्रता, गणतंत्र समारोहों में परेड जैसे नुमाइशी कार्यक्रमों तक भूमिका सीमित होकर रह जाएगी। ऊंटों को बचाने के प्रयासों और लोकसंस्कृति को जीवित रखने के संदर्भों में हमें सभी कार्यों में ऊंटों की उपादेयता और स्वयं अपनी भी भूमिका तय करनी होगी।

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