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बीकानेर,दोस्तो, एक समय था किसी भी संगठन/संस्था के कार्यकर्ता का भी रुतबा होता उस संगठन/संस्था के माध्यम से उसकी पहचान होती,फिर एक समय ऐसा आया कि कार्यकर्ता सिर्फ घर फूक कर तमाशा देखता,यानि संगठन के कार्यकर्ता होने का रुतबा दिखाने में घर से तन,मन,धन से बर्बादी,किन्तु आज स्थिति ये हो गई कि किसी संगठन/संस्था का कार्यकर्ता बनना मतलब सब कुछ फूक कर टेंशन मोल लेना । उस संगठन की एहमियत उसके सुप्रीमो की जमकर बड़ाई,लोगो को उससे जुड़ने हेतु प्रेरित करना,अपनी तरफ से उनको भरोसा दिलाना, और एक महफ़िल में बैठे हो तो उन पर खर्च करना,संगठन की प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु इधर उधर लोगो से संपर्क करते हुवे गाड़ी का डीजल/पेट्रोल जला कर अपनी जेब ढीली करना,किन्तु उसी कार्यकर्ता को एहसास तब होता है जब वे ही लोग काम लेकर आते है,जिनको संगठन के सुप्रीमो की तरफ से विश्वास दिलाया जाता है कोई काम पड़ने पर , किन्तु तब कार्यकर्ता महोदय को पता चलता है अपनी ओखाद । एक तरफ जिनको भरोसा दिलाया उनकी नाराजगी तो दूसरी तरफ संगठन के मुख्य पदाधिकारियों की बेरुखी,दोस्तो ऐसी स्थिति में उस कार्यकर्ता महोदय के क्या पल्ले पड़ेगा,मात्र घर फूंक कर टेंशन और ऐसा टेंशन की वो बीपी,शुगर,हार्ट की भेंट चढ़ेगा या फिर पाला बदल कर मिटाएगा अपनी झेंप । एक कहावत है कि हे ! इंसान तू किसी संगठन/संस्था का कार्यकर्ता नही बना है तो अब कार्यकर्ता बनकर देख,नही तो बने है उनके हाल देख ।

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