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बीकानेर,जन्म और जीवन दो बिंदु है। जन्म से भी जीवन का महत्व ज्यादा होता है इसे हमें स्वीकार करना होगा। जिनके दोनों ही श्रेष्ठ होते हैं, वे अति पुण्यशाली होते हैं। आचार्य श्री महाश्रमण जी का जीवन हमारे लिए एक उदाहरण है। जिन्होंने बाल्यावस्था में जैन भागवती दीक्षा लेकर अपने आपको अहिंसा, संयम एवं तपमय बना लिया।
उनके जीवन की प्रत्येक क्रिया सबके लिए प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय बन गई। तेरापंथ धर्म संघ के नवमाधिशास्ता आचार्य श्री तुलसी जो एक विश्व विख्यात व्यक्तित्व बनें उन्होंने अपने शिष्य की विनय, अनुशासन, विद्वता एवं विवेक पूर्ण जीवन शैली को देखकर प्रसन्नता ही व्यक्त नहीं की बल्कि “महाश्रमण” जैसा अलंकरण प्रदान कर सारे धर्मसंघ का ध्यान मुनि मुदित कुमार पर मानो केंद्रित कर दिया।गुरूदेव ने उनके सुश्रम को देखकर कई स्वतंत्र यात्राएँ करवा कर देखा और पाया कि जिन क्षेत्रों में उनका जाना हुआ वहां भक्ति भाव का ज्वार सा उमड़ गया। उनकी कार्यशैली सबको प्रभावित करने वाली सिद्ध हुई। पूरे धर्मसंघ में महाश्रमण के प्रति आकर्षण देखा गया। आपकी भाषा इतनी मधुर एवं सारगर्भित है कि सुनने वाला बाग-बाग हो जाता है।तेरापंथ धर्मसंघ के दशमेश आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी प्रज्ञा के भंडार थे। अहिंसा-सत्य और सम-शम-श्रम के पुजारी थे। उन्होंने सोचा कि मुझे भी अवस्था काफ़ी आ गई है अतः मुझे भी अपने गुरू के रहते हुए ही अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर देनी चाहिए जिससे मेरे गुरुदेव को भी लगे कि उत्तराधिकार योग्य हाथों में सौंपा गया है। उन्होंने गुरुदेव तुलसी के समय में ही दीपावली के शुभ दिन लाडनूं में नियुक्ति पत्र लिखकर गुरुदेव को दिखाया तब गुरूदेव ने भी प्रसन्नता व्यक्त की परंतु वह पत्र सार्वजनिक नहीं किया गया। उसे गुप्त रूप में ही रखा गयाआचार्य श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ का युग तेरापंथ के लिए स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। संघ विकास के लिए नित नये आयाम चलाये गये जो आज भी हमारे लिए उपयोगी और महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। आठ आचार्यों तक न कोई साहित्य प्रकाशित हो पाया और न ही सुदूर प्रांतों और विदेशों की यात्राएं  की गई जिससे श्रावक समाज के साथ अन्य मतावलंबियों से मिलना हो सके। यह सब जब तक नहीं होता संघ वृद्धि का सपना भी साकार नहीं हो सकता।

गुरुदेव तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी के युगीन चिंतन ने जन-जन को प्रभावित किया, जैन-अजैन सभी श्रद्धालु बनें। यह सब आचार्य श्री महाश्रमण जी अपनें दोनों गुरुओं की छत्र छाया में रहकर देखते ही नहीं रहे बल्कि इसको और व्यापक कैसे बनाया जा सकता है उस पर गहराई से चिंतन मंथन करते रहते थे।आचार्य श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने अपने महाश्रमण को इस प्रकार तैयार किया कि आचार्य श्री महाश्रमण जी ने दस आचार्यों द्वारा किये गये सुश्रम और कार्यों की सुरक्षा करते हुए कई और नये आयाम चलाकर संघ की गरिमा महिमा को जो शिखर चढ़ाया है। वह आज सबके सामने है।

वर्तमान युग में गुरुदेव की चर्या को देखकर लगता है कि इस पाँचवें आरे में चौथे आरे सी साधना केवल आगमों में ही नहीं है उसे साकार रूप में देखा जा सकता है। इस यान वाहन के युग में पैदल चलना और इतना श्रम करना कोई साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है। घरों में दस व्यक्तियों को एक साथ रखना मुश्किल प्रतीत हो रहा है और गुरूदेव के साथ निरंतर सैंकड़ों साधु-साध्वी ही नहीं हजारों श्रावक-श्राविकाएँ देखे जा सकते हैं।यह सब गुरूदेव की प्रबल पुण्याई का साक्षात नमूना है। गुरूदेव के दीक्षा कल्याण वर्ष के उपलक्ष्य में देश विदेश में एक अच्छा आध्यात्मिक वातावरण बना है। पूरे वर्ष धर्म संघ में तपस्या साधना का विशेष रंग खिला नज़र आ रहा है। दीक्षा स्वर्ण जयंती पर हम यह मंगल कामना करते हैं कि युगों-युगों तक हमें आपका मार्गदर्शन मिलता रहे जिससे हम भी अपने समय शक्ति और पुरुषार्थ के द्वारा स्व-पर कल्याणकारी बन सके।

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