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बीकानेर साहित्य सृजन की नगरी रही है। कवि, कथाकार, नाट्य लेखन और साहित्य की विभिन्न विधाओं में इतना काम हुआ है कि राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य सृजन को लेकर बीकानेर की साख रही है और है भी। इस बीच बीकानेर में वरिष्ठ कवि, कथाकार, साहित्यकार की उपमा वाले लेखकों की बहार आ गई है। समाज उनको वरिष्ठ कवि, कथाकार, साहित्यकार नहीं कह रहा है वे खुद ही ये उपमा लगा रहे हैं। थोक में साहित्य लिख रहे हैं और विमोचन करवा रहे हैं। एक बार बाल कवि बैरागी ने उदयपुर में आयोजित एक साहित्यकारों के पुरस्कार समारोह में कहा था कि मेरे पोते को मेरी एक कविता भी याद नहीं है मेरी माँ को रामचरितमानस औऱ गीता कंठस्थ है। हम अपने साहित्य सृजन पर जितना इतराते हैं उतना समाज पर उसका असर है भी क्या ? खैर सवाल यह है कि बीकानेर के वरिष्ठ कवि, कथाकार, साहित्यकार किन से वरिष्ठ हैं ? क्या प्रेम चन्द आदि से या हरीश भदानी, नन्द किशोर आचार्य, भवानी शंकर व्यास विनोद या माल चन्द तिवारी … आदि से। समकालीन लेखकों से भी कोई कैसे वरिष्ठ हो सकता है ? साहित्य सृजन में वरिष्ठ होने क्या अर्थ है। वरिष्ठ तो पद में होता है। योग्यता की देवी के साथ अयोग्यता वैसा ही मेकअप करके खड़ी हो जाए तो सृजनधर्मिता का क्या हश्र होगा समझ लेने की जरूरत है। साहित्यिक महिमामंडन की पराकाष्ठा हो गई है। हद तो तब हो गई कि वरिष्ठ कवि, कथाकार, साहित्यकार ही एक दूसरे की आलोचना करते थकते नहीं हैं। क्या सृजनधर्मिता का इर्दगिर्द पर भी असर है ? आपकी 100 – 50 पुस्तकों के नाम तो यहां के साहित्यकार जानते ही होंगे ? नहीं तो चाहे हजार पुस्तकों का एक साथ विमोचन करवा लें। ऐसे सृजन से समाज को क्या दिया। ऐसा सृजन अहंकार को ही तुष्ट करता है। भाई खुद ही वरिष्ठ साहित्यकार मत बनो इसमें आपका ही उपहास है – समाज को कहने दो कि आपकी रचनाएं श्रेष्ठ है।

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