बीकानेर,जाट रे जाट’ जाट कथा संकलन में अपनी बात’ शीर्षक में कहानीकार राजेन्द्र केडिया लिखते हैं:-जाट प्रबल इच्छा शक्ति का धनी होता है श्रम और साहस उसके चाकर होते हैं जिजीविषा उसमें कूट-कूट कर भरी होती है जीवन को जीने की आस्था और संकल्प का ही दूसरा नाम ‘जाट’ है। कभी धर्म कभी जाति का सहारा लेकर सत्ता अपनी ताकत के साथ हम पर हावी होने का प्रयत्न करती है तब हमारे भीतर का जाट उठ खड़ा होता है वही जुल्म और शोषण का विरोध करता है और प्रतिकार भी। भिड़ जाने और जूझने की इस इंसानी प्रवृत्ति का नाम जाट है जाट मोटी बुद्धि मसखरा भोला-भाला सरल होता है और दिखावे से दूर रहता है। आगे आप कहते हैं आजकल लोग दूसरों का उपहास और जी दुखाकर अपना मन खुश करते हैं मसखरी नहीं करते जाट अपनी माटी से जुड़ा होता है । यदि माटी का इतिहास लिखा गया होता तो उसका नायक जाट किसान होता।
मैं लेखक के विचारों को पढ़ने के बाद जाट को जो समझा हूंँ वह है- मेहनती,सरल भौतिकता और दिखावे से दूर रहने वाला, माटी से जुड़ा निष्कपट, मसखरा, बुद्धिमान, स्वाभिमानी, जिद्दी, जुझारू किसान होता है।
जाट के उपरोक्त विशेषणों से संप्रत होने के कारण कहानीकार राजेन्द्र केडिया ने 16 वर्ष बाद पुनः जाट कथाओं का दूसरा संकलन निकाला है ‘वाह रे जाट’ जिसमें वह ‘जो कहना है’ शीर्षक से वह कहते हैं:
” कहने की जरूरत नहीं कि जाट माटी से जुड़ा फकत मेहनती मिनख नहीं, बल्कि एक मजबूत सोच है, जो न सिर्फ अपने हक और अधिकार के वास्ते लड़ने के लिए प्रेरित करता है, बल्कि दूसरों पर होने वाले अन्याय का प्रतिकार करने के लिए भी तत्पर करता है। जाट किसी जाति या वर्ग का नाम नहीं है, निरंतर संघर्ष करने के हौसले का नाम है। जाट एक जज्बा है, जो हर मेहनतकश और ईमानदार इन्सान के भीतर होता है। जाट दूसरों को पराजित किए बगैर जीतने और जीने का नाम है। जाटनी, नारी के अदम्य साहस, असीम धैर्य और अपराजेय अस्मिता की प्रतीक है। परायी चीज पर नजर रखने वाले दुरात्माओं को वह बिना लाठी उठाये सबक सिखाना जानती है। कहानियों में किसी जाति, पेशे या व्यक्ति के लिए उपहास अथवा आलोचना नहीं है, किसी की ‘ठकुरसुहाती’ भी नहीं है, इसलिए इन कहानियों से किसी को दोरा मानने की जरा भी जरूरत नहीं है। व्यंग्य और उपालंभ सामाजिक सत्य को उजागर करने का माध्यम होता है, उसकी सदाशयता को स्वस्थ मानसिकता के साथ स्वीकार करना उचित है।”
कहानीकार होना बिना समाज को समझे बिना इसमें घुले-मिले बिना लोककथा-लोक कहानी, लोकमानस की प्रवृत्ति, लौकिक- अलौकिक तत्व की परख किये नहीं सम्भव हो सकता। यह सब केडिया जी में उनके विचारों और कहानियों के माध्यम से मैंने देखा और पाया है।
नारी के सम्बन्ध में इसी आलेख में कहानीकार की टिप्पणी ध्यानत्व है:-” नारी पुरुष का मैच आधा अंग नहीं होती सही अर्थ में पुरुष का पूरक अंग होती है।” यह टिप्पणी पुराने मिथक को तोड़ती तो है ही,साथ ही कहानीकार को कहानी के दायरे से बाहर निकाल कर साहित्यकार की वृहतता में लाकर खड़ी करती है। ‘साहित्यकार’ लेखक का विभूषण है यह प्रत्येक लेखक को नसीब नहीं होता राजेन्द्र केडिया जी इसके अधिकारी हैं। विचारधारा ही व्यक्ति को विशेष बनाती है क्योंकि व्यक्ति किसी की नहीं स्वयं की विचारधारा पर सृजन करता हुआ समाज का हिस्सा रहते हुए अपने जीवन पथ पर अग्रसर होता है। राजेन्द्र केडिया जी समाज के प्रति जिम्मेदार हैं कहावत है ‘पूत के पाँव पालने में दिख जाते हैं’। लेखक का लेखकीय/ साहित्यिक गुण उसकी कृति के आत्मकथन में ही दिखलायी पड़ जाते हैं जो यहाँ भी दिख गये।
दूसरी बात अपनी तरफ से केडिया जी के विषय में कहना चाहूँगा कि स्वयं जाट जाति के न होने के बावजूद इस जाति विशेष से प्रभावित होना उनके साहित्यिक धार्मिक गुण सहिष्णुता का परिचायक है।
केडिया जी का इस सम्बन्ध में मत:-
जाट कथाएं ही क्यों? इसलिए कि जाट के ऊपर जितने भी बड़े नामधारी मिनख हैं, वे जिंदगी को सही अर्थों में जीना जानते ही नहीं हैं। उनको लेकर जिंदगी को कहानियां नहीं गढ़ी जा सकती हैं। ऋग्वेद का मंत्र है, ‘प्रेता जयता नरा उग्रा वः सन्तु वाहवः, अनाधृष्यायथ सथ,’ अर्थात आगे बढ़ो, विजयघोष करो और अपनी भुजाओं को ऊंचा उठाओ ताकि शत्रु तुम्हे भयभीत और पराभूत नहीं कर सके। इस मंत्र को निरंतर संघर्षरत रहने वाला, जुझारू जाट-किसान जितना समझ सकता है, उतना बड़ा, ठाडा और जबरा मिनख नहीं।
-क्रमशः
(आगे संगृहीत कहानियों की समीक्षात्मक चर्चा करूँगा)