बीकानेर,सबसे पहले मोजूदा भारतीय राजनीति के कुछ गढ़े जा रहे मिथकों को तोड़ना जरूरी है। पश्चिम बंगाल में तीसरी बार चुनाव जीतने के बाद दिल्ली कूच करने की तैयारी कर रहीं ममता बनर्जी और उनके चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने एक मिथक रचा है कि क्षेत्रीय पार्टियां ही भाजपा को या नरेंद्र मोदी और अमित शाह को हरा सकती हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है क्योंकि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के अपवाद को छोड़ दें तो कोई प्रादेशिक क्षत्रप अपने दम पर भाजपा को नहीं हरा सका है। प्रादेशिक क्षत्रपों को ज्यादातर जगहों पर भाजपा से सीधा मुकाबला नहीं करना पड़ा है और जहां सीधा मुकाबला हुआ है वहां दिल्ली व पश्चिम बंगाल को छोड़ कर हर जगह भाजपा जीती है। भाजपा उन्हीं जगहों पर हारी है या सत्ता से बाहर हुई है,जहां कांग्रेस ने प्रादेशिक क्षेत्रपों का साथ दिया।
बिहार में प्रादेशिक दलों से भाजपा हारी थी लेकिन दोनों प्रादेशिक पार्टियों- राजद व जदयू ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था। झारखंड में भी भाजपा हारी तो जेएमएम और कांग्रेस की साझा ताकत से हारी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस व रालोद की साझा ताकत भी विधानसभा चुनाव में भाजपा को नहीं हरा सकी और न सपा और बसपा की साझेदारी लोकसभा में भाजपा को हरा सकी। तेलंगाना, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में प्रादेशिक पार्टियां जीती हैं लेकिन वहां उनकी लड़ाई भाजपा से नहीं थी। भाजपा इन राज्यों में बहुत छोटी पार्टी है। कर्नाटक में जहां भाजपा की ताकत है वहां प्रादेशिक पार्टी जेडीएस उससे नहीं लड़ सकती है। कर्नाटक में एनसीपी और कांग्रेस मिल कर भाजपा-शिव सेना को नहीं हरा सके थे। एक रणनीतिक दांव के तहत शिव सेना ने भाजपा से तालमेल किया, जिसकी वजह से भाजपा कम सीटों पर लड़ी और अकेले दम पर बहुमत तक नहीं पहुंच सकी। वहां भी कांग्रेस की मदद के बगेर दोनों प्रादेशिक पार्टियां भाजपा से नहीं लड़ सकती हैं। पंजाब में भाजपा का साथ छोड़ने के बाद सबसे मजबूत क्षेत्रीय पार्टी अकाली दल साफ होने की कगार पर है और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल लगभग खत्म हो गई है। जाहिर है कांग्रेस को कमतर दिखाने के लिए प्रादेशिक
पार्टियों को बड़ा बनाने का मिथक गढ़ा जा रहा है।
दूसरा बड़ा मिथक जो भाजपा ने अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से गढ़ा है, जिस पर रणनीतिक कारणों से क्षेत्रीय पार्टियां चुप हैं, वह ये है कि भाजपा से कांग्रेस नहीं लड़ सकती है या सीधी लड़ाई में कांग्रेस हारेगी ही। यह भी अर्धसत्य है। यह सही है कि 2004 से 2014 तक 10 साल तक केंद्र की सत्ता में रहने और इसी अवधि में देश के एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में सरकार बनाने के पैमाने पर देखेंगे तो कांग्रेस कमजोर हुई दिखाई देगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई बड़े नेताओं के अलग होने और पार्टी बनाने की वजह से भी कांग्रेस कमजोर हुई है। इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस के 21 नेताओं ने अलग होकर अपनी पार्टी बनाई है और आजादी के समय से बात करें तो कांग्रेस 62 बार टूटी है और कई दर्जन पार्टियां कांग्रेस से निकल कर बनी हैं, जिनमें से कुछ पार्टियों की अभी कई राज्यों में सरकार चल रही है। प्रादेशिक पार्टियों को सोचना चाहिए कि आखिर वह क्या बात है, जिससे इतनी बार टूटने के बावजूद कांग्रेस खत्म नहीं हो रही है और बड़ी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां एक-दो बार टूटने के बाद अस्तित्वहीन हो गईं।
बहरहाल, कांग्रेस कमजोर हुई है इसके बावजूद विधानसभा चुनावों में भाजपा से मुकाबले का उसका रिकार्ड प्रादेशिक पार्टियों से बेहतर है। कांग्रेस ने मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराया। यह अलग बात है कि कांग्रेस को तोड़ कर भाजपा ने मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बना ली लेकिन इन तीनों राज्यों में कांग्रेस निर्णायक तौर पर जीती थी। पंजाब में अकाली दल और भाजपा साथ थे, वहां भी कांग्रेस ने एनडीए को निर्णायक रूप से हराया। हरियाणा में कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी और भाजपा को बहुमत नहीं हासिल कर दिया। उसे मजबूरी में दुष्यंत चौटाला के साथ मिल कर सरकार बनानी पड़ी। पांच साल की एंटी इन्कंबेसी झेलने के बावजूद कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा को बहुमत नहीं हासिल करने दिया और शपथ लेने के बाद बीएस येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था। वहां भी कांग्रेस और जेडीएस को तोड़ कर भाजपा ने सरकार बनाई है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के समर्थन से गैर भाजपा सरकार बनी हुई है और दो साल से चल रही है। गुजरात के चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को नाकों
चने चबवा दिए थे। दोनों में लगभग बराबरी का मुकाबला था। चुनाव नतीजों के बाद भाजपा ने एक एक करके कांग्रेस के एक दर्जन विधायकों को तोड़ कर अपनी तरफ किया।
जहां क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस से तालमेल किया वहां उनको भाजपा के खिलाफ निर्णायक कामयाबी मिली। बिहार में 2015 में राजद, जदयू और कांग्रेस ने भाजपा को हराया और 2020 में जदयू भाजपा के साथ होने के बावजूद राजद कांग्रेस गठबंधन ने बराबरी का मुकाबला बनाया। झारखंड में जेएमएम और कांग्रेस गठबंधन ने भाजपा को निर्णायक रूप से हराया। सो, कांग्रेस कमजोर हुई है यह सही है लेकिन कांग्रेस इतनी कमजोर हो गई है कि भाजपा से लड़ ही नहीं सकती है, यह गलत धारणा है। उसी तरह क्षेत्रीय पार्टियां कई राज्यों में जीती हैं लेकिन क्षेत्रीय पार्टियां ही भाजपा से लड़ सकती हैं यह भी गलत धारणा है। यह भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को बहुत सरलीकृत करके देखने जैसा है। चुनाव इस तरह ब्लैक एंड व्हाइट में नहीं होते हैं। हर चुनाव की तासीर अलग होती है। आखिर लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा ने तृणमूल को बराबरी की टक्कर दी थी। तृणमूल की सीटें 33 से घट कर 23 हो गई थी और भाजपा दो से बढ़ कर 18 पहुंच गई थी। इसलिए यह कहना कि ममता ही भाजपा को हराएंगी और दूसरा कोई नहीं हरा पाएगा, फालतू की बात है। अगले ही चुनाव में अगर अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में जीत जाएं तो बंगाल से समूचा फोकस उत्तर प्रदेश शिफ्ट हो जाएगा।
ममता बनर्जी के अभियान को कुल मिला कर इतना कहा जा सकता है कि उनके पास संसाधन हैं और अदम्य महत्वाकांक्षा है, जिसकी वजह से वे भागदौड़ कर रही हैं। कांग्रेस विरोध में प्रतिबद्ध मीडिया को भी ऐसा लग रहा है कि ममता कांग्रेस को कमजोर कर रही हैं इसलिए वह उनके जयकारे लगा रहा है। हकीकत में उनका पूरा अभियान एक झाग के सिवा कुछ नहीं है। अगले साल सात और उसके अगले साल आठ राज्यों के चुनाव होने हैं। इन 15 राज्यों के चुनाव नतीजों से तय होगा कि 2024 का लोकसभा चुनाव कैसा होगा और उसमें कौन सी क्षेत्रीय पार्टी क्या भूमिका निभाएगी। कांग्रेस अपने मौजूदा आधार के दम पर भी केंद्रीय ताकत रहेगी। अगर क्षेत्रीय पार्टियां इस बात को स्वीकार करेंगी, तभी वे भाजपा से लड़ पाएंगी।