बीकानेर,हम भारतीयों के लिए भारत-पाक विभाजन बीसवीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी थी। आजादी को पचहत्तरवीं सालगिरह मनाते हुए इतिहास पर नजर डालें तो विभाजन एक महत्वपूर्ण मसला है जिस पर विमर्श की जरूरत है। हम उपलब्ध साक्ष्यों और किताबों के सन्दर्भ के आधार पर भारत पाक विभाजन में गांधी की भूमिका की पड़ताल करते हैं तो बहुत सी बातें सामने आती है जिनको इस मौके जानना याद करना जरूरी है।
डॉ. राम मनोहर लोहिया अपनी किताब ‘भारत विभाजन के गुनहगार की भूमिका में भारत विभाजन के आठ मुख्य कारण गिनाते हैं जिनमें ब्रितानी कपट, कांग्रेसी नेतृत्व का उतारवय हिंदू-मुस्लिम दंगों की प्रत्यक्ष परिस्थिति, जनता में दृढ़ता और सामध्यं का अभाव, गांधीजी की अहिंसा को नीति, मुस्लिम लौग की फूट नीति, आए हुए अवसरों से लाभ उठा सकने की असमर्थता और हिंदू अहंकार।
“भारत का बंटवारा मेरी लाश पर होगा अपने जीते जी मैं कभी भारत के बंटवारे के लिए तैयार नहीं हो सकता।” यह गांधी और माउंटबेटन के संवाद का पहला वाक्य था जो अपनी मुलाकात के बाद बातचीत शुरू होने पर गांधी ने माउंटबेटन को कहा।
अप्रैल 1947 में भारत के अंतिम वायसराय लुई माउंटबेटन ने भारत की समस्या के समाधान के लिए भारतीय नेताओं से मुलाकात करना तय किया था और इसी क्रम में वे भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी से बात कर रहे थे।
फ्रीडम एट मिडनाइट में लेखक डोमिनिक लापियर और लैरी कोलिन्स लिखते हैं कि गांधी कह रहे थे कि भारत के टुकड़े न कीजिए। माउंटबेटन ने गांधी को विश्वास दिलाया कि भारत का बंटवारा तो अंतिम हल है। गांधी बंटवारे को रोकने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने के लिए तैयार थे। गांधी ने कहा देश के दो टुकड़े करने की बजाय उसे जिन्ना को दे दीजिए। मैं इसके लिए तैयार हूं कि जिन्ना और उनकी पार्टी मुस्लिम लीग सरकार बना ले। आप उन्हें छोटा हिस्सा देने की बजाय पूरा
‘भारत का बंटवारा मेरी लाश पर होगा अपने जीते जी मैं कभी भारत के बंटवारे के लिए तैयार नहीं हो सकता।” यह गांधी और माउंटबेटन के संवाद का पहला वाक्य था जो अपनी मुलाकात के बाद बातचीत शुरू होने पर गांधी ने माउंटबेटन को कहा।
विभाजन की योजना में नेहरू उनके लिए मददगार होंगे।
मोहम्मद अली जिन्ना जो पाकिस्तान की मांग को लेकर हठ पकड़े हुए थे, उनकी मुलाकात का जिक्र करते हुए माउंटबेटन कहते हैं मैंने जिन्ना को बंटवारे की हठधर्मिता से डिगाने के लिए हर तरकीब प्रयोग की लेकिन वह टस से मस न हुए। उन पर पाकिस्तान के असंभव सपने को साकार करने का ऐसा जुनून सवार था कि कोई भी दलोल उन्हें अपनी जगह से डिगा नहीं सको।
जिना खुद के पैरों पर खड़ा पाकिस्तान चाहते थे जिसमें वह पंजाब और बंगाल पूरे प्रांत चाहते थे। उनकी दलील थी कि हिंदुस्तान के अल्पसंख्यक मुसलमानों पर बहुसंख्यक हिंदुओं की हुकूमत नहीं होनी चाहिए। यद्यपि माउंटबेटन ने कहा •फिर बंगाल और पंजाब के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर बहुसंख्यक मुसलमानों की हुकूमत किस बुनियाद पर उचित ठहराई जा सकती है। इसी को आधार बनाकर माउंटबॅटन बंगाल और पंजाब का विभाजन करना चाहते थे।
ब्रिटिश भारत ग्यारह प्रशासनिक हिस्सों में बंटा हुआ था और इन सभी इलाकों के गवर्नर के साथ लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत विभाजन पर चर्चा करने के लिए दिल्ली में अपने निवास पर मीटिंग बुलाई। ओलेफ़ केरो जोसीमा प्रान्त के गवर्नर थे उन्होंने चेतावनी दी कि उनका सूबा टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा। उन्हें यह भी आशंका थी कि अफगानिस्तान के पठान कबीले खेबर दरें से होते हुए पेशावर पर टूट पड़ेंगे। हम एक बड़े अंतरराष्ट्रीय संकट में फंस जाएंगे। पंजाब के गवर्नर सर एवान जेकिन्स का कहना था कि पंजाब में जो आग सुलग रही है और हिंसा की जो भयानक तस्वीर उभर कर आएगी, वह बहुत खतरनाक होगी। तीसरे गवर्नर
बंगाल के सर फ्रेडरिक बरोज के प्रतिनिधि ने जो हालत बयान कि वह भी पंजाब और सीमा प्रांत जैसे ही थी। सब लोगों की बात सुनने के बाद माउंटबेटन ने एक संभावित बलकान योजना तैयार कर उसे सभी गवर्नर को दिया। योजना के मुताबिक भारत के ग्यारह प्रांतों में से हर एक को यह फैसला लेने का अधिकार था कि वह पाकिस्तान में शामिल होना चाहता है या भारत में और अगर उसके हिंदू और मुसलमान मिलकर दोनों बहुमत से यह तय करें कि वे अलग राष्ट्र के रूप में रहना चाहते हैं तो उन्हें तीसरे मुल्क के रूप में स्वीकार किया जाए।
इस बीच माउंटबेटन ने पंजाब और सीमा प्रांत का दौरा तय किया। पठान बाहुल्य सीमा प्रांत में कांग्रेस की सरकार थी और गांधी के साथी खान अब्दुल गफ्फार खान इस इलाके के नेता थे। वे जिन्ना के इस्लामिक राज्य की मांग का घोर विरोध कर रहे थे। लेकिन जिन्ना और उनके साथियों ने इस इलाके की बाकी मुस्लिम आबादी को अपने इस्लामिक राज्य के सपने में इस तरह डुबो लिया कि अब्दुल गफ्फार खान की खिलाफत में लाखों पठानों की भीड़ वायसराय के दौरे के दौरान इकट्ठे हो गई।
पठानों से मुलाकात के बाद माउंटबेटन पंजाब पहुंचे और रावलपिंडी से पच्चीस मील दूर कुहटा गांव का दौरा किया। जहाँ पंजाब के गवर्नर ने बताया कि 3500 आबादी वाला यह गांव हिंदू सिख बाहुल्य गांव था जिसे पिछले दिनों एक हिंसक भीड़ ने आग के हवाले करके खत्म कर दिया।
यह सब हालात ब्रिटिश वायसराय के लिए यह जानने के लिए काफी थी की हालात कैसी है। वायसराय इस निर्णय पर पहुंचे कि तुरंत ऐसा कदम उठाने की आवश्यकता थी जिससे भारत
हिंदुस्तान दे दीजिए। माउंटबेटन ने चालाकी से कहा- क्या आप की पार्टी कांग्रेस इस बात को मान लेगी। गांधी बोले, “कांग्रेस हर चीज से बढ़कर यह चाहती है कि देश का बंटवारा न हो। उसे रोकने के लिए कुछ भी करने को लेकर तैयार है।” “अगर आप मुझे औपचारिक रूप से इस बात का आश्वासन ला दें कि कांग्रेसी आपकी इस योजना को मान लेगी तो मैं पूरी लगन के साथ इस योजना को सफल करने की कोशिश करूंगा।” माउंटबेटन की बात सुनकर गांधी खुशी से उछल पड़े। गांधी इसके अलावा कोई जवाब सुनने के लिए तैयार नहीं थे।
इस मुलाकात की कड़ी में माउंटबेटन की पहली मुलाकात भारत की अस्थाई सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से हुई थी। नेहरू ने गांधी के बारे में जिक्र करते हुए अपनी बात पहले ही स्पष्ट कर दी थी कि, “मैं जिस आदमी को इतने लंबे अरसे से भक्त रहा हूं। वे भारत के शरीर पर एक के बाद एक दूसरे घाव पर मरहम लगाकर उसे अच्छा करने की कोशिश करते घूम रहे हैं, बजाय इसके कि वे रोग का निदान कर पूरे शरीर को स्वस्थ कर दें।” नेहरू यह बातविभाजन के संदर्भ में गांधी के लिए कह रहे थे। यह बात माउंटबेटन के अनुकूल थी। नेहरू के शब्दों में इस बात की झलक मिलती थी कि भारत के मुक्तिदाता गांधी और उनके निकटतम सहयोगियों के बीच खाई लगातार चौड़ी होती जा रही थी। गांधी बंटवारे के कट्टर विरोधी थे ऐसी हालात में नेहरू की बात से माउंटबेटन को भरोसा हो गया कि
में शांति स्थापित की जा सके, उधर गांधी दुखी हृदय से अपने प्रायश्चित यात्रा का अंतिम पड़ाव पूरा कर रहे थे। वह 1 मई 1947 को दिल्ली की बाल्मीकि बस्ती में यात्रा शुरू कर चुके थे। वह भारत की एकता बनाए रखने के लिए अंतिम दम तक जुटे हुए थे। कहने को तो वह कांग्रेस पार्टी के हाईकमान थे लेकिन अब उनको बात सुनने वाला यहां कोई नहीं था। वह सबलोग जिनको उन्होंने अपने 30 साल लंबे संघर्ष में तैयार किया था वह सब गांधी के एकता के विचार पर सहमत नहीं थे। उनके अनुवाइयो के सब का बांध टूट चुका था। आजादी की मंजिल तक पहुंचने के लिए अंतिम और अनिवार्य कदम के तौर पर भारत विभाजन के लिए सहमत हो चुके थे।
गांधी मानते थे कि जैसा यह सब लोग सोच रहे हैं हालात वैसी नहीं है। विभाजन बहुत भयानक साबित होगा और पूरे देश में कत्लेआम हो जाएगा। हिंदुस्तानियों की कई पीढ़ियां इस गलती की कीमत चुकाते रहेगी।
माउंटबेटन के साथ नेहरू यह महसूस कर रहे थे कि भारत के सिर पर बहुत बड़ी तबाही के बादल मंडरा रहे हैं और विभाजन कितना कष्टप्रद ही क्यों ना हो देश को बचाने का यही रास्ता है। गांधी का मन, गांधी की आत्मा पुकार रही थी कि यह लोग गलती कर रहे हैं। उनका कहना था कि अंग्रेजों के दिए बिना जिन्ना को पाकिस्तान नहीं मिल सकता और कांग्रेस के बहुमत का अटल विरोध हो तो अंग्रेज कभी विभाजन नहीं करेंगे। माउंटबेटन कोई भी सुझाव रखे लेकिन उनके निर्णय को रोक देने की क्षमता कांग्रेस के हाथ में है। गांधी ने कहा कि अंग्रेजों से कह दीजिए यहां से चले जाएं उनके जाने के बाद जो कुछ होगा हम भुगत लेंगे। उनसे कह दीजिए कि वह भारत को छोड़कर चले जाएं, भगवान के भरोसे छोड़कर चले जाए। उनका जी चाहे तो अराजकता के हवाले कर जाए। हम इसे संभाल लेंगे आग में तप कर हम निखरकर ही निकलेंगे।
-क्रमश:
सुरेंद्रसिंह शेखावत, बीकानेर (लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार है)