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बीकानेर,मार्च 1947 में गांधी जब बिहार में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अपनी यात्रा निकाल रहे थे तब एक दिन उन्हें अखबारों से पता चलता है कि कांग्रेस ने पंजाब के विभाजन का प्रस्ताव पारित कर दिया है इसका सीधा तात्पर्य यह था कि कांग्रेस भारत विभाजन के प्रस्ताव से सहमत हो गई है। यह त्रासद आश्चर्य है कि इतना बड़ा प्रस्ताव करने से पहले गांधी से कोई सलाह मशविरा तो दूर उन्हें सूचना तक नहीं दी गई। प्यारेलाल ने पूर्णाहुति में लिखा है कि उन्हें अहसास हुवा मानो उनके पैरों तले अचानक जमीन फट गई हो। हालात यह हो गए थे कि गांधी के विश्वस्त साथी अब उनके विचारों की परवाह नहीं कर रहे थे। उनके प्रति केवल औपचारिक आदर ही बचा था।

लोहिया अपनी किताब भारत विभाजन के गुनहगार में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक का जिक्र करते हैं जिसमें विभाजन योजना की स्वीकृति की दो गई। वह कहते हैं कि उस मीटिंग में गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान, जयप्रकाश नारायण और स्वयं लोहिया के अलावा किसी ने भी विभाजन के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। गांधी के भाषण का जिक्र करते हुए कहते हैं कि जब गांधी ने इस बात का जिक्र किया कि उनको नेहरू और पटेल ने कोई सूचना नहीं दी तो गांधी की बात खत्म करने से पहले ही नेहरू आवेश में आकर उन्हें टोकते हैं।

गांधी दुबारा कहते हैं कि कांग्रेस अपने नेताओं द्वारा किए गए वायदों को निभाए और वह विभाजन के सिद्धांत को भले ही मान ले लेकिन उसको क्रियान्वित करने की घोषणा कांग्रेस को करनी चाहिए। गांधी के कहने का तात्पर्य यह था कि कांग्रेस ब्रिटिश सरकार को यह सूचित कर दें कि वह भारत को छोड़कर चले जाएं और उनके जाने के बाद

आचार्य अपने लेख ‘महात्मा गांधी का अकेलापन’ में लिखते हैं कि कांग्रेस का नेतृत्व युद्धोत्तर काल में गांधी की अनदेखी करने लगा था।

“चिंगारी पाकिस्तान की अतीत : और भविष्य” नामक किताब में लेखक एम.जे. अकबर लिखते हैं कि जिन्ना मुस्लिमों को यह समझाने में कामयाब हो गए कि सयुंक्त भारत में इस्लाम खतरे में है और पाकिस्तान वह किला है जहां उसे बचाया जा सकता है।

‘भारत गांधी के बाद में’ रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कांग्रेस की अदूरदर्शिता, जिन्ना की महत्वकांक्षा और अंग्रेजों की अनैतिकता तथा हिंदुस्तान के प्रति उनके रवैया ने बंटवारे में अपनी-अपनी भूमिका अदा की। गांधी और नेहरू की जिन्ना की अपेक्षा मुल्ला-मौलवियों के साथ तालमेल करने की जो कोशिश थी उसमें कांग्रेस इस गफलत में रही कि मुस्लिम समुदाय उनके साथ समाजवादी दर्शन का समर्थन करेगा, लेकिन इसके विपरीत मुस्लिम लीग ने मुसलमानों में अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि जिन्ना के पास कांग्रेस से समझौता करने की कोई वजह नहीं। जिन्ना खुद भारी महत्वाकांक्षा से भरे थे। जो किसी समय हिंदू मुस्लिम एकता के दूत के रूप में मशहर हुए वही द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थक बन गए। मूल रूप से अंग्रेजों की नीतियां इसकी जिम्मेदार थी। अंग्रेज चाहते थे कि भारत में हिंदू और मुसलमानों की खाई बनी रहे।

पूर्व विदेश मंत्री रहे जसवंत सिंह अपनी किताब ‘जिना: भारत विभाजन के आईने में लिखते हैं कि यह विडंबना ही थी कि जिन्ना प्रत्यक्ष रूप से और नेहरू परोक्ष रूप से मुसलमानों के लिए विशेष दर्जे के मुख्य पैरोकार बन गए। संविधान के तहत सभी भारतीय नागरिक समान थे, और हैं। लेकिन जिन्ना मुसलमानों के लिए विशेष दर्जे की मांग रख कर सोधे तौर पर भारतीय नागरिकों के बीच

अलग-अलग श्रेणियां बनाने के पैरोकार बन गए। जो काम जिन्ना ने सीधे तौर पर किया वही नेहरू ने मुसलमानों के एकमात्र प्रवक्ता होने के जिन्ना के अधिकार को चुनौती देते हुए परोक्ष रूप से किया। दो महान भारतीय नेता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत के मुसलमानों के एकमात्र प्रवक्ता बनने की प्रतिस्पर्धा में लगे थे। इसके बाद संयुक्त भारत के पक्ष में बोलने वाला भला कौन बचा था?

सत्याग्रह की संस्कृति में नन्दकिशोर आचार्य लिखते है कि गांधी की उद्विग्नता का कोई पार नहीं था क्योंकि एक ओर तो वे विभाजन से सहमत नहीं हो पा रहे थे और दूसरी तरफ इस नाजुक अवसर पर कांग्रेस में कोई फूट नहीं चाहते थे क्योंकि इसका सीधा-सीधा लाभ ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग को मिलता। बिना कोई जल्दबाजी अगर रणनीतिक ढंग से कदम दर कदम अंग्रेजों की वापसी होती तो विभाजन से पहले उसके दौरान और बाद में भारत ने जैसी हिंसा देखी उसकी संभावना शायद पूरी तरह खत्म ना भी होती पर कम तो जरूर हो जाती। कांग्रेस ने पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया था और शासन संभालना शुरू कर दिया था। कांग्रेस चाहती तो पाकिस्तान को ठुकरा देती और शासन को भी ठुकरा देती और दोबारा जनता के बीच सद्बुद्धि और शांति स्थापित करने के लिए बाजी लगा देती। परंतु गांधी ने देख लिया कि विभाजन के विकल्प में नेताओं में श्रद्धा नहीं है। गांधी अब उनमें श्रद्धा नहीं भर सकते थे। 3 जून 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश लोकसभा में तथा माउंटबेटन ने नई दिल्ली में आकाशवाणी से भारत विभाजन की घोषणा की। कांग्रेस महासमिति ने 15 जून को 153 के मुकाबले 29 मतों से इसे मंजूरी दे दी। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जे.बी. कृपलानी ने एक छोटे से भाषण में कहा

मुस्लिम लीग के साथ बैठकर विभाजन की प्रक्रिया को निपटा लें। लोहिया लिखते हैं कि गांधी की यह कुशल चाल थी। अगर ऐसा होता तो विभाजन अपने आप ही टल जाता। लोहिया इस बैठक का जिक्र करते हुए कहते हैं कि नेहरू और सरदार पटेल गांधी के प्रति आक्रामक दिखाई दिए। दोनों से उनकी तीखी झड़पें भी हुई। जो बात लोहिया को इस बैठक में सबसे ज्यादा अखरी थी वह गांधी के इन दो शिष्यों की उनके प्रति अत्यधिक अशिष्टता। लोहिया ने इस के वर्णन में ‘बार्कड वायलेंटली’ और ‘ऑफिसिवली अग्रेसिव जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। गांधी का विरोध बिल्कुल स्पष्ट था। पंडित नेहरू और सरदार पटेल चाहते थे कि अपनी असहमति के बावजूद गांधी कार्यसमिति और महासमिति में विभाजन के प्रस्ताव में उनका समर्थन करें। पूर्णाहुति में प्यारेलाल गांधी के माध्यम से लिखते हैं कि आज मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया हूं सरदार और जवाहरलाल तक का सोचना है कि परिस्थितियों की मेरी समझ गलत है और विभाजन होने पर शांति स्थापित हो जाएगी हो। हो सकता है वह सब सही हो और मैं अकेला ही अंधेरे में भटक रहा हूं। लेकिन आज हर कोई भारत की आजादी के लिए अधीर है इसलिए और कोई चारा नहीं है फिर भी मैं विभाजन

का कतई समर्थन नहीं कर सकता। गांधीवादी चिंतक डॉ नंदकिशोर

कि कांग्रेस ने गांधी जी का साथ क्यों छोड़ दिया, कृपलानी ने कहा कि मैं 30 साल से गांधी जी के साथ हूं। उनके प्रति मेरी भक्ति व्यक्तिगत नहीं राजनीतिक है। मैं उनसे असहमत हुआ हूं तो भी उनकी राजनीतिक अंतर प्रेरणा से अपने तर्कयुक्त विचारों से उनको ज्यादा सही माना है। आज भी मैं मानता हूं कि उनकी महानता वैसी ही है। मैं गलत हूं लेकिन मैं उनके साथ आज इसलिए नहीं हूं कि मैं महसूस करता हूं कि गांधीजी इस समस्या को सामूहिक रूप से हल करने का कोई रास्ता नहीं निकाल पाए। गांधीजी मानते थे कि अगर गैर मुस्लिम भारत भी उनके साथ होता तो भी विभाजन को रद्द करने का कोई रास्ता निकाल सकते थे। गांधीजी के पास आने वाले जो खत थे उनमें 90 फ़ीसदी में गालियां और घृणा भरी हुई होती थी। हिंदू उनसे मुसलमानों का पक्ष लेने के सवाल पूछते थे और मुसलमान कहते थे कि वे पाकिस्तान बनने में रुकावट क्यों डाल रहे हैं।

15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी एक नई राजनीतिक व्यवस्था थी। यह वह दुखांत विजय थी। एक ऐसी विजयजिसमें सेना ने खुद अपने सेनापति को हरा दिया। गांधी ने घोषणा की कि वे 15 अगस्त के समारोह में भाग नहीं लेंगे। उन्होंने कहा मैंने इस विश्वास में अपने को धोखा दिया कि जनता अहिंसा के साथ बंधी हुई है। गांधी दंगे रोकने कोलकाता चले गए। उन्होंने अंतिम दम तक भरोसा नहीं छोड़ा। 29 अगस्त को उन्होंने अमृत कौर को लिखा कि मानवता एक महासागर है और यदि महासागर की कुछ बूंदे गंदी हो जाए तो सारा महासागर गंदा नहीं होता। गांधी की उम्र 78 साल थी और जो संसार उन्होंने रचा था उनके सामने खंडहर पड़ा हुआ था। उसे नए सिरे से निर्माण करना था।

-सुरेंद्रसिंह शेखावत, बीकानेर (लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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