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जयपुर,तबादलों को लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का शिक्षकों से संवाद कोई हंसी-मजाक का हिस्सा रहा होगा, ऐसा लगता नहीं। लगता यह भी नहीं कि मुख्यमंत्री को इसकी जानकारी नहीं होगी कि शिक्षकों को तबादलों के लिए पैसे देने पड़ते हैं। न केवल शिक्षा विभाग बल्कि कमोबेश सभी विभागों में तबादलों के लिए सुविधा शुल्क वसूलने का यह दौर कोई आज से नहीं। मुख्यमंत्री ने इस सवाल के बाद तबादला नीति बनाने का संकेत जरूर दिया है, लेकिन रहस्य यह भी है कि मुख्यमंत्री ने यह अनभिज्ञता क्यों जताई? हो सकता है उनका मकसद कोई संदेश देना रहा हो। लेकिन इतना साफ है कि तबादलों का सुविधा शुल्क जहां तक पहुंचने की शिकायतें आती रहती हैं, वे कतई नहीं चाहेंगे कि सरकार कोई तबादला नीति बनाने में कामयाब हो जाए। शिक्षा विभाग में तो तबादला नीति बनाने की बातें नब्बे के दशक से हो रही है। तबादला नीति बनाने के नाम पर न जाने कितनी कमेटियां बनाकर सरकारी खजाने पर बोझ डालने का काम पिछले सालों में हुआ। नतीजा सिफर ही है।

मुख्यमंत्री की यह चिंता वाजिब है कि आखिर शिक्षक पैसे देकर तबादला कराने को क्यों लालायित रहते हैं? लेकिन इस चिंता का समाधान भी उनके ही पास है। तबादलों के लिए डिजायर कहां से

और क्यों आती है, इस सवाल का जवाब पहले तलाशना होगा। वह भी तब, जब सरकारी कार्मिकों के लिए किसी भी तरह की सिफारिश को आचार संहिता के खिलाफ माना जाता है। शिक्षक सम्मान समारोह में मुख्यमंत्री ने विधायकों – मंत्रियों के कपड़े फाड़ने का जिक्र

भी किया। यह बात कहते हुए जिस सहज अंदाज में तबादलों में हावी होती राजनीति की ओर संकेत किया, वही इस समस्या की असली जड़ है। ट्रांसफर-पोस्टिंग में भी नेताजी का इशारा हो तो फिर शिक्षक ही क्यों बल्कि दूसरे सरकारी कार्मिक व अफसर भी आखिर राजनेताओं की चापलूसी क्यों न करे? जब नियुक्ति से लेकर तबादला कराने तक में दलाल सक्रिय हों तो फिर यही चापलूसी काम में आती है। और, इस चापलूसी में भी यदि लेन-देन शामिल हो तो फिर इसे तबादला के इच्छुक कार्मिक की मजबूरी ही समझा जाना चाहिए। यही कारण है कि सिस्टम में घुसे दलाल किस्म के ये लोग तबादला करवाने में कमीशन खाते हैं तो तबादला रुकवाने में भी। जो नेताओं से पटरी नहीं बैठा पाते, वे यह मानकर चलते हैं कि अब उनका बोरिया बिस्तर बंधना तय है।

पदस्थापन कहां करें और कहां नहीं? लेकिन चिंता की बात यह है कि यों तो पुलिस-प्रशासन से लेकर नौकरशाही पर राजनीतिक दलों के तमाम महकमों में सरकार का यह प्रति निष्ठा की छाप लगने लगी है। इसे विशेष अधिकार होता है कि वह लोकतंत्र की सेहत के लिए कतई किसी कार्मिक या अफसर का उचित नहीं कहा जा सकता।

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