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बीकानेर,नवजात बछड़े बछड़ी के जन्म से सात या ग्यारह दिन बात सूरज पूजन और नाम निकलने की गांवों में परंपरा रही है। यह परंपरा हम बिसारते जा रहे है। आज की पीढ़ी को या तो हास्यास्पद लगती होगी या निरर्थक। वैसे विश्व भर में मानव और पशुओं के बीच साहचर्य है। मानव उत्पति के साथ ही पालतू जानवर के बिना मानव जीवन परिपूर्ण नहीं कहा जाता। दुधारू और भार ढोने वाले पशु मानव समाज के निकट रहे है। आज भी पश्चिमी देशों में घरों में कुत्ते बिल्ली पाले जाते हैं। उनका भी नाम रखा जाता है। भारत में भी तथाकथित नव धनाढ्य अथवा आधुनिक कहे जाने वाले लोग घरों में कुत्ता पालते है जिनका वे नाम भी रखते हैं। वही ग्रामीण भारतीय घरों में गाय, बकरी, भेड़ आदि आज भी पाले जा रहे हैं।। गाय और बछड़े के बीच के वात्सल्य को अनुपम प्रेम की संज्ञा दी गई है। दुनिया में इस से गहरा कोई मातृत्व वात्सल्य नहीं हो सकता। इसकी कल्पना मात्र से जीवन की संवेदनाएं स्फूरित हो जाती हैं और इस प्रेम की अनुभूति से जीवन बदल जाता है। यह गौ बछड़े का वात्सल्य भारतीय वांगम्य में प्रतीक है। वही दुनिया में सबसे ज्यादा खुशियां मनाने के अवसर भारत में ही है। यह कोई दिखावटी या प्रायोजित नहीं, बल्कि लॉजिकल और परंपरागत है। इसमें तीज त्योहार को छोड़ दें तो आध्यात्मिक, चराचर जीव जगत का साहचर्य देने वाले ओकेजन जिसे आधुनिक समाज भूलता जा रहा है। इसमें एक है गाय के बछड़े या बछड़ी का सूरज पूजन या नामकरण। गांवों जब गाय ब्याहती है तो बड़े बुजुर्ग तब तक बछड़े,बछड़ी का सूरज नहीं पूज लेते गाय का दूध नहीं पीते। कारण तब तक बछड़े को भरपूर दूध मिले। सूरज पूजन के साथ नामकरण भी करते। क्योंकि एक घर में पांच सात गाएं होती तो बछड़े की पहचान नाम से होती। सूरज पूजन के दिन खीर बनाते। सूर्य देव के चढ़ाते। इन सबके पीछे लॉजिक है कि गाय बछड़ा स्वस्थ है अब दूध पीया जाना सुरक्षित है। गोपालक का गोधन से परिजनों जैसा लगाव भी बडा कारण है। आधुनिक समाज का पालतू कुत्ते से जो जुड़ाव दर्शाता है इससे ज्यादा परिवारों में गोधन से लगाव गांवों में आज भी है। गोधन और गोपालकाें के बीच कितना गहरा भावनात्मक लगाव रहता है यह गोपालक ही महसूस कर सकता है। गौ संस्कृति और गोचर प्रकृति की पुर्नस्थापना के बिना पर्यावरण संरक्षण नामुमकिन है।

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