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बीकानेर। जय वीत राग शासन की, यहां अनेकान्त का शासन है, यहां सब धर्मों का शासन है। समतामय मंत्र प्रकाशन की, सर्वधर्म सदा आबाद रहे, नहीं मानव में दुर्भांत रहे, मर्यादा रहे गुरु शासन की, यह बात है जीव विकासन की, सब अपना- अपना काम करे। अपने चेतावनी भजन की इन पंक्तियों के माध्यम से  महाराज साहब ने कहा कि  महापुरुष फरमाते हैं, तीन बातों को सदा याद रखो। पहली सदैव इस संसार में रहना नहीं, दूसरा एक ना एक दिन जाना है, जायेंगे तो कुछ भी साथ नहीं जाएगा और तीसरी पुन: लौटकर आना नहीं है। इन तीन बातों का सदैव चिन्तन करते रहना चाहिए। श्री शान्त क्रान्ति श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने यह उद्गार नित्य प्रवचन में व्यक्त किये ।
आचार्य श्री ने कहा कि जो इनका चिन्तन करते हैं, उन्हें संसार की कोई शक्ति आसक्ति नहीं कर सकती। थोड़े से दिनों के लिए और छोटे से जीवन के लिए हमें माया का प्रपंच नहीं करना चाहिए। अज्ञानी आदमी जीवन में तीन काम करता है। पहला परिवार के लिए प्रपंच करता है। दूसरा अपने शरीर का पोषण करता है और तीसरा धन की धुन में जीता है। यह तीन काम हम करते हैं तो हममें और अज्ञानी में फिर कोई फर्क नहीं रह जाता है।
महाराज साहब ने कहा कि मानव भोगों की ओर भाग रहा है और मौत मानव की ओर भाग रही है। जो सांस हमारा छूट गया, वह मौत के मुंह में चला जाएगा। इसलिए मृत्यु की चिंता करते रहने वाला सच्चा, सीधा, निर्मल और सरल बन जाता है। महाराज साहब ने कहा कि जो जन्मा है, वह मरेगा, फूल खिला है तो मुरझाएगा ही, ऊगता सूरज सदा उगा नहीं रहता, धीरे-धीरे अस्ताचंल की ओर चला जाता है। जो मृत्यु का चिंतन करते हैं उनकी आसक्ति ढ़ीली पड़ जाती है।
महाराज साहब ने एक प्रसंग सुनाते हुए कहा कि एक बार एक बालक थावचाकुमार अपने छत पर खेल रहा था। पड़ौस के मकान में उसने देखा कि ढ़ोल बज रहे थे, शहनाईयों की गूंज सुनाई दे रही थी। चारों और हर्ष एवं उल्लास का वातावरण था। यह देख बालक दौडक़र अपनी मां के पास गया और बोला, मां यह क्या है..?, मां ने कहा बेटे इनके घर में बालक ने जन्म लिया है। इसलिए यह उत्सव मना रहे हैं। इस पर बालक बोला, क्या जब मैं पैदा हुआ था, तब ऐसे ही उत्सव मनाया गया। इस पर मां बोली हां बेटा, तू जब पैदा हुआ तब तेरे पिता जीवित थे और उस व1त तो पूरे द्वारिका नगर में उत्सव मनाया गया। कुछ दिन बाद बालक फिर छत पर खेलने के लिए चढ़ा और देखता है कि उसी पड़ौस के घर में जोर-जोर से रोने की आवाजें आ रही थी। हर कोई विलाप कर रहा था और छाती पीट रहे थे। इस पर बालक थावचाकुमार दौड़ कर मां के पास गया और बोला मां आज पड़ौस के घर में रोने की आवाजें आ रही है। हर तरफ सन्नाटा सा है। इस पर मां ने बताया कि बेटे उस दिन जो बालक पैदा हुआ था, आज उसकी मृत्यु हो गई। बालक के यह बात समझ में नहीं आई तो उसने कहा, मां क्या एक दिन मैं भी मरुंगा। मां ने समझाया बेटे खुद के मरने की कल्पना नहीं करनी चाहिए। फिर जोर देने पर मां ने कहा बेटे यही सत्य है। तुम्हारे पिता भी मृत्यु को  प्राप्त हुए, मैं भी होऊंगी और तुम भी.., यह कहकर मां चुप हो गई। इस पर बालक थावचाकुमार ने कहा मां मैं मृत्यु नहीं चाहता, मैं तो अमर होना चाहता हूं। मां ने कहा बेटे यह संभव नहीं है, जो आया है उसे जाना ही पड़ता है। बहुत हठ के बाद मां ने कहा इस बारे में तुम्हें महाराज अश्विनी जी ही बता सकते हैं। अब बालक उनका इन्तजार करने लगा कि कब महाराज आएं और मैं उनसे अमरत्व के बारे में बात करुं, एक दिन संयोगवश वह दिन भी आ गया। बालक मां से आज्ञा लेकर महाराज अश्विनी से मिलने पहुंच गया। जाकर अपनी  जिज्ञासा बताई। इस पर महाराज ने बताया कि शरीर से कोई अमर नहीं बनता, शरीर तो यहीं रह जाता है। अमर तो आत्मा है। अमरत्व की बात पर महाराज अश्विनी ने कहा कि इसके लिए संयम का मार्ग अपनाना पड़ेगा। संयम ही तुम्हें अजर- अमर बना सकता है। बालक थावचाकुमार ने संयम के मार्ग पर चलने की ठान ली।  और महाराज अश्विनी से आशीर्वाद लिया। जब यह बात मां को पता चली तो उसने  बहुत मना किया पर वह बालक टस से मस ना हुआ। हारकर मां उसे भगवान श्री कृष्ण के पास ले गई, सोचा वही इसे सही रास्ता दिखाएंगे। जब भगवान श्री कृष्ण के पास वे पहुंचे तब भगवान ने कहा कि यह तो मैं भी नहीं सोच रहा तू कैसे सोच रहा है। तू संसार में रह, गृहस्थी में आनन्द से रह, क्यों प्रपंच में पड़ रहा है। संयम का मार्ग तो बहुत कठिन है। तब कहते हैं कि थावचाकुमार ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मैं अपनी जिद्द छोड़ देता हूं। आप केवल मुझे दो वचन दे दो, भगवान ने कहा बताओ, इस पर वह बालक बोला,एक मुझे कभी बुढ़ापा नहीं आएगा और दूसरा मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी। यह सुन भगवान श्रीकृष्ण भी दंग रह गए। बोले, यह शक्ति तो मेरे पास भी नहीं है। यह वरदान तो मैं नहीं दे सकता। अश्विनी भगवान की बात बालक ने श्रीकृष्ण को बताई। तब भगवान श्री कृष्ण बोले उन्होंने सही कहा है और बालक की बात मानते हुए पूरी द्वारिका नगरी में ऐलान करवा दिया कि बालक थावचाकुमार संयम के मार्ग पर चलने जा रहा है। नगर में कोई इसके साथ इस मार्ग पर चलना चाहे तो चल सकता है। महाराज साहब ने बताया कि कहते हैं, बालक थावचाकुमार के साथ नगर के एक हजार आदमी संयम के मार्ग पर चले।
महाराज साहब ने कहा कि जिस प्रकार तपे बगैर खेती नहीं होती, रोटी नहीं पकती और धन की प्राप्ति नहीं होती। ठीक इसी प्रकार तपे बगैर धर्म की प्राप्ति भी नहीं होती है। धर्म के लिए तप करना पड़ता है। महाराज साहब ने कहा याद रखो, संसार में कोई सार नहीं है, संसार छोडऩे जैसा है, संसार तो छोडऩा ही है और जाते वक्त कुछ भी साथ नहीं जाएगा। जाएगा तो केवल आपके द्वारा किया गया पुरुषार्थ ही आगे काम आएगा। इसलिए त्याग करो, सेवा करो, सम्मान करो, इससे ही आदमी लोकप्रिय बनता है।
महाराज साहब ने एक अन्य प्रसंग के माध्यम से त्याग के फल का वृतांत सुनाया और त्याग की महिमा बताई।
अतिथियों के आने का क्रम जारी
श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढा ने बताया कि मंगलवार को महाराज साहब के दर्शनार्थ और उनकी अमृत वाणी का लाभ लेने के लिए चैन्नई,ब्यावर, बहरोड़, कुकनुर, नागौर, मैसूर, नोखा, बैंगलुरु और उदयपुर से श्रावक पधारे। जिनका श्री संघ की ओर से स्वागत किया गया।

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