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बीकानेर।भगवान की दो प्रकार की लीला है। माधुर्य लीला, एश्वर्य लीला, परन्तु ब्रजवासियों को माधुर्य लीला में बड़ा आनन्द आता है। इसका आस्वादन सुखदेव जी महाराज ने किया। इसी का प्रसंग शुक्रवार को महंत क्षमारामजी ने बताया। सींथल पीठाधीश्वर श्री श्री 1008 महंत क्षमाराम जी महाराज ने श्री गोपेश्वर-भूतेश्वर महादेव मंदिर में चल रही पितृ पक्ष पाक्षिक श्रीमद् भागवत कथा का वाचन करते हुए कहा कि सूर्य ग्रहण चन्द्रगहण में भगवान का स्मरण करना और तीर्थ में जाना हमारे शास्त्रों में प्रमुखता से बताया है। महाराज ने ग्रहण के कारण पर धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से अंतर बताए। साथ ही कहा कि विज्ञान भी यह मानता है। वैज्ञानिकों ने ग्रहण काल में किसी प्रकार के हिन्दुओं द्वारा खान-पान ना करने को ठीक बताया है। कारण यह कि ग्रहणकाल में ऐसे-ऐसे किटाणु पैदा होते हैं जो खाने-पीने के साथ हमारे शरीर में प्रविष्ट कर जाते हैं, इसलिए तरह-तरह के असाध्य रोग होते हैं। महंत जी ने कहा कि परशुराम जी ने 21 बार क्षत्रियों का संहार किया और अंत में कुरुक्षेत्र में हथियार डाल कर, स्नान कर लोगों को ज्ञान दिया। गीता भगवान के मुखारविन्द से पैदा हुई है। कुरुक्षेत्र में कौरव भी गए, पाण्डव भी गए, कुन्ति भी गई थी। गीता में कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र भी कहा जाता है। जो छिपाना चाहिए वो छिपाती है, वह गोपी होती  है। जो अपने व भगवान के प्रेम को छिपाती है, वह गोपी है। महंत जी ने कहा कि जब तक किसी का कोई ऊर्जा उतरता नहीं उसको मुक्ति नहीं मिलती, यह शास्त्रों में लिखा है। पिता ने क़र्ज़ लिया,चुका ना सके तो परिवार जन को बता देना चाहिए। जब तक कर्ज़ नहीं चुकता किसी की  मुक्ति नहीं होती, चाहे वह कितना ही भजन कर ले। इसलिए अगर किसी से कर्जा लिया है तो उतार देना चाहिए।
महंत जी ने कहा कि परिवार को जितना हो सके कलह से बचाना चाहिए।  महाभारत के युद्ध से पहले बलराम जी ने कौरवों और पांडवों को समझाने का बहुत प्रयत्न किया। लेकिन बलराम जी ने खुलकर नहीं कहा, हालांकि उनका झुकाव कौरवों की तरफ था, श्रीकृष्ण खुलकर पाण्डवों के साथ थे और विशेषतौर से अर्जुन के साथ  थे। इसलिए रथ पर आगे बैठे, आगे रहे। महंत जी ने कहा कि आदमी में अपनी गलती मानने का स्वभाव होना चाहिए। वर्तमान समय पर चिंता जताते हुए कहा कि आजकल परिवार में यह देखने को नहीं मिल रहा है। आजकल हम हमारी सनातनी परंपरा को आजकल की शिक्षा से भूलाते जा रहे हैं। इसका आने वाले समय में भयंकर दुष्परिणाम होंगे। शरीर पर कोई धर्म चिन्ह नहीं है। ना शिखा रखते हैं, ना तिलक लगाते हैं। हमें हमारी संस्कृति पर, पहनावे पर, पहचान पर शर्म आने लग गई है। इससे नीचे और हम कहां तक जाएंगे सज्जनों, यह चिंतन का विषय है। केवल अपने निहित स्वार्थ में उलझे हुए हैं। हम लोग अपने को हिन्दू मानते नहीं हैं। हिन्दूओं को गौरव होना चाहिए, हमारी माताओं की वजह से लगता है कि हमारी संस्कृति बची हुई है। हमारी बेटियां आजकल ऐसे कपड़े पहनती है, वेशभुषा के लिए माताएं अपनी बच्चियों को समझाएं, आप माताओं की वजह से ही हिन्दू धर्म बचा हुआ है।

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