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बीकानेर,नया साल, नयी उम्मीदें और कुछ नया करने की चाहत। लेकिन इस बार ‘नया’ क्या करें? तो सोचा- चलो ! पुराने को ही नया बनाया जाए. ‘राजस्थानी भाषा को मान्यता मिले’.. वो मुद्दा जो बीते 19 सालों से प्रस्तावित है. इसे 8वीं अनुसूची में शामिल करवाने के लिए स्टेट, नेशनल और इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म्स से आवाज़े उठीं, आंदोलन हुए लेकिन अब सारी कवायदें सिफर.

वो भाषा, जिनमें 8 करोड़ राजस्थानी की जान बसी है। वो भाषा, जिसे बोलने पर ज़ुबान गुड़ सरीखी मीठी हो जाती है। वो भाषा,जो फ़क़त भाषा नहीं है बल्कि एक जज्बात है। वही भाषा अपने संवैधानिक दर्जे की लड़ाई लड़ रही है. आख़िर क्या वजहें हैं, जिनके चलते इस भाषा को मान्यता नहीं मिल रही?

कुछ समय से इस पर हमारी रिसर्च चल रही थी. इसे ‘मान्यता’ न देने को लेकर कोई ठोस वजह निकलकर नहीं आई, सिवाय राजनीतिक शून्यता के।

जब सब कोशिशें कर रहे हैं तो क्यों न इस यज्ञ में एक आहुति हमारी तरफ से भी दी जाए. चलो ! राजस्थानी भाषा की मान्यता में एक गिलहरी प्रयास हम भी करें। हाथ से हाथ मिलेंगे तो कारवां भी बनेगा। बस ! यही सोचकर नवरात्रि के पहले दिन से इसकी शुरुआत कर दी। सबसे पहले राजस्थान सरकार के ही कला-संस्कृति मंत्री डॉ. बी. डी. कल्ला से ‘भाषा की मान्यता’ पर विस्तार से बात हुई और उनकी बाइट रिकॉर्ड की गई। अब केंद्रीय संस्कृति मंत्री से भी जल्द ही बात करेंगे।

फिर निकल पड़ेंगे उन रास्तों पर, जिनकी ‘जिम्मेदारों’ को भी फिक्र नहीं है। मिलेंगे राजस्थानियों से, प्रवासी राजस्थानियों से, घूमेंगे राजस्थान, कोलकाता और मारवाड़ियों के ठिकानों में. फिर दिखाएंगे वो, जो अब तक न देखा गया हो. राजस्थान भाषा से आम जन के जज्बात जुड़े हैं। हमारी कोशिश रहेगी कि उन्हें इस डॉक्यूमेंट्री के जरिए दिखा सकें, मान्यता की मांग को और बुलंद बना सकें।

इस यज्ञ में हमें आपकी भी ज़रुरत पड़ेगी। राहें तो चुन ली हैं, कहीं गिर पड़ें तो थाम लीजिएगा. साथी हाथ बढ़ाना रे। उम्मीद है, आप (राजस्थानी) थामेंगे। पद्मश्री से सम्मानित कन्हैयाल लाल सेठिया यूं ही नहीं कहते थे-
आ तो सुरगां नै सरमावै, ईं पर देव रमण नै आवै,
ईंरो जस नर नारी गावै, धरती धोरां री!

धोरों की धरती, यूं ही नहीं पूजी जाती। अब इसका कर्ज उतारने की बारी है.

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