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बीकानेर। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने शुक्रवार को सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे चातुर्मास के नित्य प्रवचन में कहा कि श्रावक-श्राविकाओं को ना तो दूसरों की भूलों का कलेक्शन (संग्रह) करना चाहिए और ना ही स्वयं की भूलों का, हमें तो अपनी भूलों का करेक्शन (सुधार) करना चाहिए। लेकिन हम करते क्या हैं, औरों की भूलों पर तो ध्यान देते हैं परन्तु अपनी भूलों पर पर्दा डालते हैं। इस तरह से हम अपनी भूलों का कलेक्शन करना भी भूल जाते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हमें दूसरों की भूल जो वह करता है तो करे, हमें उसकी भूल पर ध्यान नहीं देना चाहिए और अगर स्वयं से कोई भूल हो गई है तो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
महाराज साहब ने भूल के कारण और भूल से किस प्रकार बचा जाए, इसके निवारण को लेकर महत्वपूर्ण संदेश श्रावक-श्राविकाओं को देते हुए कहा कि संयम प्राप्ति के लिए क्षमा का धारण करना बहुत जरूरी है। कोई भी कभी भूल करता है तो उसके प्रति क्षमा के भाव रखना चाहिए।
आचार्य श्री ने बताया कि व्यक्ति चार कारणों से भूल करता है। पहला कारण है कि वह अज्ञान भूल करता है, जो अनजाने में हो जाती है, जानबूझकर नहीं की जाती है। दूसरा आवेश वश, इसमें आदमी अपना स्वयं पर नियंत्रण खो देता है। यह भूल क्षमा योग्य भूल नहीं होती है । तीसरे प्रकार की भूल है, योजनबद्ध तरीके से की गई भूल, महाराज साहब ने कहा जानबूझकर जो इस प्रकार के कृत्य करता है। यह भी अक्षम्य भूल है और चौथी भूल है जानकारी के अभाव में होने वाली, इस प्रकार की भूल में कभी-कभी क्षम्य और कभी-कभी अक्षम्य, दोनों प्रकार की भूलें शामिल है। महाराज साहब ने बताया कि क्षमा शब्द दो अक्षर से बना है। पहला क्ष से क्षय और दूसरा म से मान, इसका मतलब जो मान का कषाय करे वह क्षमा कहलाता है। चार कषायों में से एक कषाय मान है।
आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि जब तक हमें स्व का ज्ञान नहीं होता है, ध्यान नहीं होता, चिंतन और जागरण नहीं होता है, तब तक हम संसार में गतिशील रहते हैं। महाराज साहब ने कहा कि जीवन में कभी विरोधाभास नहीं रखना चाहिए। लेकिन श्रावकों के साथ होता यह है कि जब वे धर्म स्थल पर आते हैं, ज्ञान,ध्यान, तप और अराधना करते हैं, तब तक उन्हें संयम धार्मिक स्थल में प्यारा लगता है। लेकिन जैसे ही वह धर्म स्थल से बाहर निकलते हैं, उन्हें संसार प्यारा लगने लगता है और संयम खारा लगने लगता है। आचार्य श्री ने चेताते हुए कहा कि यह याद रखो, यह संसार प्यार करने के लिए नहीं है। हम संसार में रहते जरूर हैं, संसार में रहना तो हमारी मजबूरी है, लेकिन मन में हमेशा यह भाव रहता है कि हम संयमी बनें, असंयम संसार है। महाराज साहब ने कहा कि महापुरुष कहते हैं कि हमारा असंयम कौन चाह रहा है..?, हमारी स्वयं की भूलों को ना देखना और दूसरों की कमियों पर गौर करना, उनका संग्रह करना तथा समय आने पर गुब्बार के साथ बाहर निकालना यही तो असंयम है। महाराज साहब ने कहा कि हमें यह नहीं करना है। हम जैन हैं, जिन शासन में अरिहंत कहते हैं कि मैं किसी की भूलों को नहीं देखूंगा और दिख गई तो खामोश रहूंगा, महाराज साहब ने कहा कि हर श्रावक को यह नियम बनाना चाहिए और अरिहंतो की कही वाणी पर चिंतन करना चाहिए।
*_धर्म संसद में आना धार्मिकता नहीं :-_*
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि धार्मिक स्थल पर आने से, प्रवचन या व्याख्यान सुनने से और वेशभूषा धारण कर लेने से व्यक्ति धार्मिक नहीं हो जाता है। धार्मिक होने के लिए तो धर्म को धारण करना पड़ता है। संयम के मार्ग पर चलना पड़ता है। धर्म सभा में तो सभी प्रकार के लोग आते हैं। बहुत से लोग तो यह सोचकर भी आते हैं कि चलो कोई काम नहीं है तो टाइमपास हो जाएगा, महाराज बोलते अच्छा हैं। इस प्रकार से हर स्वभाव और गुण के लोग आते हैं। लेकिन यह धार्मिकता नहीं है, इसे धार्मिकता नहीं कह सकते हैं। वेशभुषा तो धार्मिकता की पहचान है, यह धार्मिक नहीं है। धार्मिकता की निशानी तो पवित्रता है। आपके मन में कितनी श्रद्धा है, धर्म के प्रति आपके मन में कितने सद्गुण हैं, इससे धार्मिकता का पता चलता है।
*_काम करने से पहले सोचें :-_*
महाराज साहब ने फरमाया कि तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का एक सुक्ति मैंने पढ़ा था। ‘ओरों की भूलों को भूलें, अपनी भूल सुधारें हम, कभी ना करता मैं गलती, इस अहम व्रती को मारें हम’ दूसरों की भूलों पर ध्यान देना अधर्म है, दूसरों की भूल पर ध्यान मत दो, जो भी करो समर्पण के भाव के साथ करना चाहिए। किसी ने कोई भूल की है तो आप उसके भूलों का जवाब मत दो, याद रखो, समय का जवाब सबसे बड़ा जवाब होता है। महाराज साहब ने कहा कि सत्संग में आने का और सत्संग का लाभ लेना है तो अभिमान मत रखना, अभिमान सब दोषों का सिरमौर है। विचारों की शुद्धता, भावों की शुद्धता जीवन में होनी चाहिए। माया और अभिमान का त्याग करने वालों को सत्संग का लाभ मिलता है।
*_पाप और पुण्य आपके हाथ :-_*
महाराज साहब ने कहा कि आप जो भी कर्म करते हैं और उसके बाद जो भी घटित होते हैं, वह आपके कर्मों का फल होते हैं। महाराज साहब ने एक प्रसंग सुनाते हुए कहा कि द्वारिका का निर्माण देवताओं ने किया था। द्वारिका वासियों के पुण्य का परिणाम था तो द्वारिका बनी और जब उसका विनाश हुआ तब एक भी देवता नहीं आए, कहते हैं कि छह माह तक द्वारिका जलती रही। इसकी वजह थी द्वारिका वासियों के पुण्य का क्षय हो गया था। जब क्षय हो जाता है तो देवता भी उसका कुछ नहीं कर सकते हैं। इसलिए अपनी भूलों को रोको, भूल मत करो और जो भूल की गई है, उस भूल का प्रायश्चित करो। हाथ जोडक़र , हंसकर जीना सीखो, जो यह करना सीख लेता है, वही सच्चा साधक है।
*_श्रावक-श्राविकाओं का आने का क्रम जारी :-_*
श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजय कुमार लोढ़ा ने बताया कि आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब के दर्शनार्थ और उनके मुखारविन्द से जिन वाणी सुनने के लिए प्रतिदिन बाहर से बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं का आगमन हो रहा है। शुक्रवार को रत्नागिरी , विजयनगर (अजमेर) , नारनोल , बालाघाट , चेन्नई से श्रावक पधारे, जिनका श्री संघ की ओर से स्वागत किया गया।

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