Trending Now




बीकानेर,तेरापंथ धर्मसंघ में साधु से अधिक साध्वियाें की संख्या है। देश के हर काेने से जैन धर्म की कन्याएं गृहस्थ जीवन काे छाेड़कर संन्यास के मार्ग पर अनवरत चलती रहती है। गंगाशहर स्थित सेवा केंद्र शांति निकेतन में इन दिनाें आचार्य महाश्रमण की धवल सेना के साथ पैदल विहार करती बड़ी संख्या में बाल साध्वियां भी आई हुई हैं।

कैसे उनके मन में दीक्षा के भाव जागे परिजनाें ने साथ दिया या दबाव। साध्वियों ने कहा, दीक्षा के भाव उनमें चार से पांच साल की उम्र में ही आने लगे। परिजनाें के साथ जब कभी धर्मसभा में जातीं ताे उनके मन में भी वैसा बनने की इच्छाएं जाग्रत हाेती। जैसे-जैसे बड़ी हाेती गईं ताे इच्छा और प्रबल हुई। परिजनाें से बात की। किसी के परिजन ने उनका साथ दिया ताे किसी काे मनाने में समय लगा। मगर, अंत में सभी ने उनकाे धर्म के मार्ग पर चलते हुए मानव कल्याण की सेवा के लिए जाने की अनुमति सहर्ष प्रदान की।

चार साल की उम्र में ही मन में संन्यास का भाव जाग्रत हुआ। सूरत का प्रतिष्ठित बिजनेस घराना था। सुख-सुविधाओं की काेई कमी नहीं थी। मगर, मन में संन्यास की इच्छा ऐसी जगी की और किसी काम में मन नहीं लगा। 14 साल की उम्र में दीक्षा ली तब नाैंवी में थी। दीक्षा के बाद एमए की डिग्री हासिल की। साध्वी प्रमुखा कनक प्रभाजी की प्रेरणा से आचार्य महाश्रमण ने उन्हें दीक्षा दी।

10 साल की उम्र में ही आचार्य महाप्रज्ञ से दीक्षा ली। उस समय में चेन्नई में चाैथी कक्षा में पढ़ती थीं। अब जैनाेलाॅजी में एमए किया है। माता-पिता से प्रेरित हाेकर ही संन्यास की राह पर चलने का निर्णय लिया। एकसाथ आचार्य महाप्रज्ञ से माता-पिता व बेटी ने दीक्षा ग्रहण की। इससे पहले ट्रेनिंग भी साथ की। अब सभी जैन धर्म का प्रचार-प्रसार कर रही है। अपने माता-पिता से आठ साल बाद अब इनकी मुलाकात हुई है।

18 साल की उम्र में दीक्षा ली। उस समय बीए सैकंड ईयर में थी। मगर, आत्म उत्थान व परमानंद की अनुभूति की चाह इनके मन में थी। गृहस्थ जीवन में इन्हें हमेशा कुछ न कुछ कमी का अहसास हाेता रहा। संन्यास की ओर कदम बढ़ाया। आचार्य महाश्रमणजी से दीक्षा ली। अब इन्हें परमानंद की अनुभूति हाे रही है। कहती हैं कि गृहस्थ जीवन से हजाराें गुना बेहतर है इनका संन्यास जीवन। परमानंद की हाेती है अनुभूति।

दीक्षा लिए दाे साल ही हुए हैं। प्रारंभिक स्कूली शिक्षा कर्नाटक की इंग्लिश मीडियम स्कूल में ली। मगर, हमेशा अध्यात्म की ओर जाने का मन रहा। चार-पांच साल की उम्र में ही संन्यास की ओर जाने का मन हुआ। 10 साल की उम्र में प्रशिक्षण केंद्र पहुंच गईं। वहां अध्ययन करते हुए 17 साल की उम्र में दीक्षा ली। अभी भी शिक्षण कार्य चल रहा है। संन्यास जीवन की वे अपने पूर्व जीवन से तुलना भी नहीं करना चाहती।

आसाम में रहते हुए पांचवीं तक की पढ़ाई की। इनके परिवार में दीक्षा का सिलसिला चल रहा था। दाे मामा, एक मासी, एक बहन, एक भाई के साथ इनकी मां भी संन्यास ले चुकी थीं। ऐसे में इन्हाेंने भी इसी पथ काे चुना। अब तत्व ज्ञान काे समझ रही हैं। इसी में महारथ हासिल कर संघीय ज्ञान काे आगे बढ़ाने में याेगदान दे रही हैं। अग्रणी साध्वियाें के साथ अनवरत मानव कल्याण करना ही उद्देश्य लेकर चलती हैं।

Author