राजस्थान में रेजिडेंट डॉक्टर कई दिनों से अपनी रामानों को लेकर आंदोलनरत है। उनका आंदोलन पहली बार नहीं हो रहा है। हर वर्ष वे किसी न किसी मुद्दे को लेकर मरीजों को भगवान के भरोसे छोड़ कर सड़कों पर आ जाते हैं। सबको पता है कि खासतौर पर मेडिकल कॉलेजों से जुड़े अस्पतालों में मरीजों का • इलाज उनके भरोसे ही होता है। अब जब वे आंदोलन कर रहे हैं, तो मरीजों की देखभाल में दिक्कत आएगी ही। प्रदेश में डेंगू का भयंकर प्रकोप है। बड़ी संख्या में लोगों की मौत भी हो चुकी है। इस बीच कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के मरीज भी सामने आए हैं, जो खतरे की घंटी है। कार्य बहिष्कार पर जाने वाले रेजिडेंट कोरोना की भयावहता से ज्यादा अच्छी तरह से परिचित हैं। कोविड की पहली और दूसरी लहर के दौरान अस्पतालों की जो हालत हुई, वह उनसे छिपी हुई नहीं है। अस्पताल मरीजों से भरे पड़े थे। सारे संसाधन कम पड़ गए थे। रेजिडेंट डॉक्टरों ने भी चौबीस घंटे मरीजों की सेवा की थी। इस दौरान कई चिकित्सकों की जान भी चली गई थी। चिकित्सकों के सेवा भाव की हर किसी ने प्रशंसा की। उनको समाज ने कोरोना वॉरियर्स मानकर सम्मान भी दिया था। अब भी लोगों के दिल में उनके प्रति सम्मान में कमी नहीं आई है। इसे विडंबना ही माना जाएगा कि इस संकटकाल में चिकित्सक अपनी मांगों को मनवाने के लिए कार्य बहिष्कार करके मरीजों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर मरीजों के रक्षक चिकित्सक ही उनको छोड़कर चले जाएंगे, तो वे कैसे बच पाएंगे?
रेजिडेंट डॉक्टर जिन मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं, वे वाजिब हो सकती हैं। अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने का चिकित्सकों को भी अधिकार है, लेकिन यह अधिकार मरीजों के जीवन से बड़ा नहीं हो सकता। फिर कार्य बहिष्कार करके चिकित्सक अपने पेशे की शपथ का भी उल्लंघन कर रहे हैं। चिकित्सकों का यह आंदोलन एक तरह से अमानवीय कृत्य की श्रेणी में ही आएगा। आंदोलन के तरीके और भी हो सकते हैं। वे अतिरिक्त ड्यूटी देकर मानवीयता दर्शा सकते हैं और सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार कर समाज में एक अच्छा संदेश दे सकते हैं। सरकार को भी उनकी मांगों पर सकारात्मक रवैया अपनाना चाहिए। चिकित्सकों और सरकार के बीच लड़ाई का खमियाजा मरीज को ही झेलना पड़ता है। सरकार की भी जिम्मेदारी है कि वह समय रहते रेजिडेंट डॉक्टरों की समस्याओं का समाधान करे, जिससे उनको आंदोलन न करना पड़े।