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बीकानेर,मुग़लों ने 300 सालों तक आधुनिक भारत के बड़े हिस्से समेत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान पर शासन किया. लेकिन 1837 में बहादुर शाह ज़़फ़र के पास कमान आई, तो दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में ही मुग़ल शासन सीमित हो गया था.फिर लाल क़िले में मुग़ल साम्राज्य समा गया. कांग्रेस भी बहादुर शाह ज़फ़र की नियति में पहुँच गई है. लेकिन दिलचस्प यह है कि कांग्रेस के भीतर ही अंग्रेज़ हैं और इन्होंने अपने सक्षम नेताओं को बहादुर शाह ज़फ़र बनने पर मजबूर कर दिया है. राजस्थान में कांग्रेस अशोक गहलोत को बहादुर शाह ज़फ़र बनाने में लगी है.”

यह बात राजस्थान कांग्रेस में जारी घमासान पर कांग्रेस के ही एक नेता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कही.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कई राज्यों में कांग्रेस की बनी बनाई सरकार गिर गई. कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश से लेकर पुडुचेरी तक में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. सबसे हाल में जून महीने में महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से चल रही उद्धव ठाकरे की सरकार गिरी और यहाँ भी बीजेपी सत्ता में आ गई.

साल 2020 में सचिन पायलट भी बाग़ी बन गए थे, तब भी गहलोत ने सरकार बचा ली थी. लेकिन एक बार फिर से राजस्थान में कांग्रेस उसी संकट में दिख रही है.राजस्थान में सचिन पायलट के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले एक बीजेपी नेता कांग्रेस पर तंज़ कसते हुए कहते हैं, ”कांग्रेस आत्मघाती हो गई है. उसे आत्महत्या करने में मज़ा आने लगा है. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे दिग्गज नेता को किनारे करने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. पंजाब का नतीजा सबके सामने है. सिद्धू जेल में हैं और चन्नी आजकल क्या कर रहे हैं कांग्रेस को भी पता नहीं है. अब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व राजस्थान में भी ख़ुदकुशी करने पर आमादा है.”

वह कहते हैं, ”ये कांग्रेस ही कर सकती है कि जिसके साथ 10 विधायक भी नहीं हैं, उस सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने में लगी है और जिस अशोक गहलोत ने अपना पूरा जीवन कांग्रेस को मज़बूत बनाने में लगा दिया उसे अपमानित करने में लगी है. सोचिए हमारी पार्टी ने यहाँ अशोक गहलोत को गिराने में पूरा दम लगा दिया, लेकिन गहलोत ने इसे नाकाम कर दिया. यहाँ तक कि राज्यसभा चुनाव में एक क्रॉस वोटिंग तक नहीं होने दिया. अभी कांग्रेस में अशोक गहलोत से बड़ा नेता कोई नहीं है. सियासी समझ, गांधी-नेहरू परिवार के प्रति वफ़ादारी हो या फिर चुनाव जीतना हो, सबमें गहलोत अव्वल हैं ‘राजस्थान में बीजेपी के लोग भी अशोक गहलोत की ताक़त और सूझ-बूझ की प्रशंसा करते हैं. कांग्रेस के भीतर ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं, जो कहते हैं कि भारत की अंग्रेज़ी मीडिया ने सचिन पायलट की जो छवि गढ़ी है, उससे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी उनका सही आकलन नहीं कर रहा है.

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अशोक गहलोत का राजनीतिक सफ़र

1977 में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा और हार गए.
1980 में जोधपुर से लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की.
1982 में पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री बने.
1984 में वे एक बार फिर लोकसभा का चुनाव जीते और राजीव गांधी सरकार में भी मंत्री रहे
1989 में वे जोधपुर से लोकसभा चुनाव हार गए.
1991-99 तक वे लोकसभा सांसद रहे
1999 में विधानसभा उप चुनाव में जीतकर वे राजस्थान के मुख्यमंत्री बन गए.2003 में वे विधानसभा चुनाव ज़रूर जीते, लेकिन कांग्रेस हार गई.
2008 में एक बार फिर उनके नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी.
2013 में वे फिर अपना चुनाव तो जीत गए, लेकिन कांग्रेस की सरकार नहीं बनी.
2018 में उनके नेतृत्व में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनी
इस बार संकट के लिए कौन ज़िम्मेदार

अशोक गहलोत पार्टी अध्यक्ष के लिए नामांकन भरने वाले थे. लेकिन वह राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छोड़ना नहीं चाहते थे या फिर सचिन पायलट को यह ज़िम्मेदारी देने पर सहमत नहीं थे.

लेकिन कांग्रेस ने दिल्ली से अजय माकन को भेज अचानक ही विधायक दल की बैठक बुला दी. मीडिया में ख़बर फैला दी गई कि अशोक गहलोत अध्यक्ष बनाए जाएंगे और सचिन पायलट मुख्यमंत्री.मोहन लाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी में संजय लोढ़ा राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे हैं. लोढ़ा लोकनीति से भी जुड़े रहे हैं और 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने गहलोत और सचिन पायलट की लोकप्रियता को लेकर लोकनीति के लिए सर्वे भी किया था.

संजय लोढ़ा कहते हैं, ”2018 के विधानसभा चुनाव में अंग्रेज़ी मीडिया ने ऐसी ख़बर फैलाई कि कांग्रेस को जीत दिलाने में सचिन पायलट की सबसे बड़ी भूमिका रही. लेकिन सच यह है कि तब अशोक गहलोत की लोकप्रियता पायलट से 20 फ़ीसदी आगे थी.”

प्रोफ़ेसर संजय लोढ़ा कहते हैं, ”आप किसी को बड़े पद पर नाराज़ करके नहीं ले जा सकते. कांग्रेस के दिल्ली दरबार ने ओवरनाइट पार्टी विधायक दल की बैठक बुला दी. अजय माकन को दिल्ली से भेज दिया गया और अशोक गहलोत को भरोसे में नहीं लिया गया. इसी बीच राहुल गांधी ने कह दिया कि एक व्यक्ति एक पद का ही नियम रहेगा. यह बात उदयपुर चिंतन शिविर में कही जा चुकी थी और इससे लेकर संकल्प पत्र भी पास किया गया था.”प्रोफ़ेसर लोढ़ा कहते हैं, ”कांग्रेस ने एक व्यक्ति एक पद का नियम बनाया, यह ठीक है, लेकिन अशोक गहलोत ने तो अभी तक नामांकन भी नहीं भरा था. नामांकन भरने के पहले ही उनसे मुख्यमंत्री की कुर्सी लेने की कोशिश शुरू हो गई. जिस अशोक गहलोत के साथ 92 विधायक हैं, उस व्यक्ति को पार्टी कम से कम भरोसे में तो लेगी. एक तरफ़ तो आप अशोक गहलोत को कांग्रेस की कमान सौंपना चाहते हैं, दूसरी तरफ एक बड़े राज्य में वैसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, जो अध्यक्ष को ही प्रतिद्वंद्वी मानता है. ऐसे में तो आप न पार्टी चला पाएंगे और न ही राजस्थान. राहुल गांधी ने एक व्यक्ति एक पद की जो बात कही वह तब लागू होती जब अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बन जाते.”

संजय लोढ़ा राहुल गांधी के इस बयान को अपरिपक्व मानते हैं. वह कहते हैं, ”राहुल गांधी को जो बात पार्टी के भीतर कहनी चाहिए उसे सार्वजनिक तौर पर कह देते हैं. अगर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाना भी था तो पहले अशोक गहलोत को अध्यक्ष तो बना लेते. याद कीजिए कि राहुल गांधी ने कैसे मनमोहन सिंह के एक अध्यादेश को प्रेस कॉन्फ़्रेंस में फाड़कर फेंक दिया था. राहुल और प्रियंका गांधी पंजाब में ऐसी ग़लती कर चुके हैं. सिद्धू के मामले में इन्होंने इसी तरह की ज़िद दिखाई थी और वहां पूरी कांग्रेस तबाह हो गई.”संजय लोढ़ा कहते हैं कि सचिन पायलट पढ़े-लिखे हैं, लेकिन उन्हें भी थोड़ा सब्र करना चाहिए. लोढ़ा कहते हैं कि ऐसी बेसब्री से केवल बीजेपी का भला होगा. इससे न तो कांग्रेस का हित सधेगा और न ही ख़ुद पायलट का.

सचिन पायलट को कांग्रेस इतनी तवज्जो क्यों दे रही है कि अशोक गहलोत जैसे दिग्गज नेता की भी नहीं सुन रही है? सचिन पायलट को टोंक में चुनौती देने वाले बीजेपी के यूनुस ख़ान कहते हैं, ”विनाश काले विपरीत बुद्धि. हमारी पार्टी में मोदी जी के बाद अगर कोई सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता हैं तो वह राहुल गांधी हैं. मोदी जी तो चुनाव जीताते ही हैं, लेकिन राहुल गांधी जीत और पक्की कर देते हैं.”

सचिन पायलट गुर्जर जाति से हैं. राजस्थान में सात से आठ गुर्जर विधायक जीतकर आते हैं. राजस्थान के जातीय समाज में गुर्जरों की पहचान एक दबंग जाति की है. संजय लोढ़ा कहते हैं कि अगर सचिन पायलट मुख्यमंत्री बनते हैं तो राजस्थान के दलितों और आदिवासियों के बीच ठीक संदेश नहीं जाएगा. वह कहते हैं कि बिहार में जो छवि यादवों की लंबे समय तक रही वही छवि यहाँ गुर्जरों की है.:- गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष क्या कांग्रेस का ‘बिग बॉस’ बन पाएगा?

सचिन पायलट को जाति के खांचे से देखना कितना सही

लेकिन सवाल ये भी उठता है कि जब अशोक गहलोत के पक्ष में इतनी बातें जाती हैं, तो कांग्रेस का नेतृत्व इस समय सचिन पायलट को आगे क्यों लाना चाहता है?

जानकार कहते हैं कि सचिन पायलट के पक्ष में भी कई चीज़ें जाती हैं.

प्रोफ़ेसर संजय लोढ़ा एक वाक़ये का ज़िक्र करते हैं. चार साल पहले राजस्थान यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में व्याख्यान था. देश के जाने-माने बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने बहुत ही सारगर्भित व्याख्यान दिया. वो नोट्स लेकर आए थे. बारी सचिन पायलट के बोलने की आई और बिना नोट्स बेहतरीन भाषा में बहुत ही तार्किक जवाब दिया.

वे कहते हैं, “सचिन पायलट बहुत ही आर्टिकुलेट हैं. युवा हैं और युवाओं के बीच लोकप्रिय भी हैं. अभी के संकट को उन्होंने ठीक से मैनेज किया है. उन पर सब्र नहीं रखने का आरोप लगता है, लेकिन इस बार उन्होंने सब्र दिखाया है और गहलोत पर इसी मामले में भारी पड़ते दिख रहे हैं. सचिन बड़े नेता बन सकते हैं, लेकिन कास्ट पॉलिटिक्स से बाहर निकलना होगा.”इतना ही नहीं 2020 में जब अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ उन्होंने बग़ावत की थी, तब अशोक गहलोत ने सचिन के ख़िलाफ़ मीडिया में कई बातें कहीं. उस वक़्त भी सचिन पायलट ने अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल नहीं किया.

राजस्थान यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर चुकी रिचा सिंह कहती हैं कि सचिन पायलट युवा हैं और उनके पास राजनीति में परिवर्तन लाने का आइडिया है.

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रिचा कहती हैं, “राजस्थान कांग्रेस में ताज़ी हवा की ज़रूरत है और सचिन इस ज़रूरत को पूरी कर सकते हैं. सचिन बहुत अच्छे वक्ता हैं और अच्छी दलील देते हैं. लेकिन एक शंका भी मेरे मन में है. मैं राजस्थान यूनिवर्सिटी में पढ़ी हूँ और मैंने देखा है कि वह गुर्जरों की मीटिंग में जाते थे. सचिन को जातीय पहचान की राजनीति से बाहर निकलना होगा.”

कांग्रेस विधायक खिलाड़ी लाल बैरवा दलित हैं और वह आजकल अशोक गहलोत के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं. वह सचिन पायलट के समर्थन में बोल रहे हैं. उनसे पूछा कि क्या सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने से राजस्थान के दलितों और आदिवासियों के बीच ग़लत संदेश जाएगा?इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ”अगर गुर्जर बहकेंगे तो सचिन पायलट को भी जाना होगा. गुर्जरों की छवि दलितों के बीच अच्छी नहीं है, लेकिन सचिन पायलट को केवल उनकी जाति के आईने में नहीं देख सकते. अगर सचिन ठीक नहीं हैं तो सीपी जोशी को बना दीजिए, लेकिन अशोक गहलोत से अब मुक्ति चाहिए. अशोक गहलोत को इसीलिए पार्टी की कमान दी जा रही है कि यहाँ के नेतृत्व में परिवर्तन हो सके.”

सचिन पायलट का राजनीतिक सफ़र

2004 के लोकसभा चुनाव में दौसा से चुनाव जीते
2009 का लोकसभा चुनाव उन्होंने अजमेर से जीता
2012 में वे मनमोहन सिंह की सरकार में कॉरपोरेट मामलों के मंत्री बने
2014 का लोकसभा चुनाव वो अजमेर से हार गए
2018 में उन्होंने राजस्थान विधानसभा का चुनाव टोंक से लड़ा और जीते
गहलोत को कितना फ़ायदा कितना नुक़सानराजस्थान यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान विभाग के एचओडी रहे प्रोफ़ेसर राजीव गुप्ता कहते हैं कि राजस्थान में कांग्रेस के पास अशोक गहलोत के क़द का कोई विकल्प नहीं है.

वह कहते हैं, ”बिपिन चंद्रा कहते थे कि कांग्रेस एक सिस्टम है. कांग्रेस के नेतृत्व में एकता वाला पक्ष कभी नहीं रहा है. विवादों का होना कांग्रेस के लिए कोई नई बात नहीं है. कांग्रेस में कोई कुछ भी कह सकता है. राजस्थान के भीतर भी कोई नई बात नहीं है. लेकिन एक तथ्य है जो पता होना चाहिए कि अशोक गहलोत का कोई विकल्प नहीं है. उसी तरह से बीजेपी में वसुंधरा का कोई विकल्प नहीं है. दोनों पार्टियाँ इनके बिना चुनाव हार सकती हैं.”

प्रोफ़ेसर गुप्ता कहते हैं, ”सचिन पायलट अच्छा बोलते हैं और पढ़े-लिखे हैं, लेकिन उनकी एक कमज़ोरी है. कास्ट पॉलिटिक्स सबसे बड़ी कमज़ोरी है. अगर आप सोचते हैं कि एक जाति की राजनीति करके लोकप्रियता हासिल कर सकते हैं तो यह तात्कालिक सफलता होगी. कांग्रेस के अंदर पायलट को लेकर एक समझ बनी है कि उनके साथ दूर तक नहीं चला जा सकता है.”प्रोफ़ेसर गुप्ता कहते हैं, ”अशोक गहलोत ने जो अभी किया है, उसे लेकर जनता के भीतर नकारात्मकता आई है. जैसे ही उन्होंने कहा कि वह मुख्यमंत्री भी रहेंगे और अध्यक्ष भी बनेंगे तो पायलट खेमा सक्रिय हो गया. अशोक गहलोत के समर्थकों ने दिल्ली के पर्यवेक्षकों को बताया भी कि उनके जाने पर क्या असर होगा. अब कुछ महीनों बाद चुनाव हैं. ऐसे में अशोक गहलोत राजस्थान छोड़ते हैं तो यहाँ पार्टी हार सकती है. ऐसे में अशोक गहलोत को मना कर देना चाहिए था कि वह अभी पार्टी की कमान नहीं संभालना चाहते हैं. लेकिन सचिन पायलट की चुप्पी बहुत ही समझदारी भरी है. उनकी चुप्पी से उन्हें माइलेज मिल रही है और गहलोत की छवि पर बुरा असर पड़ा है.”

राज्य के जातिगत समीकरण पर बात करते हुए प्रोफ़ेसर राजीव गुप्ता कहते हैं- राजस्थान में गुर्जर मुश्किल से छह से सात फ़ीसदी हैं, लेकिन ये बहुत दबंग हैं. वहीं दलित और आदिवासी को मिला दें तो क़रीब 25 फ़ीसदी हो जाते हैं.

अशोक गहलोत माली जाति से ताल्लुक रखते हैं. यह जाति राजस्थान में ओबीसी है. अशोक गहलोत अपनी जाति के कारण किसी भी समुदाय के लिए अस्वीकार्य नहीं रहे हैं. यूनुस ख़ान कहते हैं कि अशोक गहलोत की पहचान जातीय पहचान से ऊपर है और ऐसे भी उनकी जाति की किसी से रंज़िश नहीं रही है.:- ग़ुलाम नबी आज़ाद का जाना, राहुल गांधी के लिए खुशखबरी है?

कांग्रेस के भीतर भी कई लोग मानते हैं कि राजस्थान को राहुल गांधी ने ठीक से डील नहीं किया. तो यह ताबूत में आख़िरी किल ठोंकने जैसा होगा. कांग्रेस के एक नेता ने कहा कि पार्टी के पास पैसे नहीं हैं. राजस्थान ने आर्थिक रूप से पार्टी को ज़िंदा रखा है, लेकिन राहुल गांधी इसे भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं.

कांग्रेस की गंभीरता पर प्रोफ़ेसर राजीव गुप्ता कहते हैं, ”प्रत्येक समाज में राजनीति का कमोडिफ़िकेशन हुआ है. ख़रीद-फ़रोख़्त का चलन ऐसे बढ़ गया है कि यह आम बात हो गई है. आप इसे अवसरवादी राजनीति कह रहे हैं, लेकिन यह दरअसल, नवउदारवादी व्यवस्था में राजनीति का कमोडिफ़िकेशन है. कांग्रेस के अंदर जो नेतृत्व है, उसने अपना ही इतिहास पढ़ना छोड़ दिया है.”

सचिन पायलट की 2020 की ‘बग़ावत’ क्या उन पर पड़ रही भारी?

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