Trending Now




बीकानेर के श्रीडूंगरगढ़ में स्थित मोमासर गांव की होली सांस्कृतिक धरोहर को संजोए रखने का बड़ा उदाहरण है। यहां हर साल होली के दिन गीन्दड होता है। नगाड़े की थाप पर होने वाला गीन्दड़ मोमासर गांव की वर्षों परम्परा है। गीन्दड में 8 से 80 साल तक के बच्चे और बुजुर्ग नगाड़े की एक थाप पर पूरी रात नृत्य करते है। गुरुवार की रात भी इस गांव में गीन्दड़ नृत्य हुआ तो आसपास के गांवों से हजारों की संख्या में लोग पहुंचे।

क्या है गीन्दड नृत्य

गीन्दड नृत्य मोमासर के अलावा अन्य कई जगह भी होता है। इस नृत्य में सभी पुरुष होते हैं, जो दोनों हाथों में डंडे लेकर नगाड़ों को एक लय में बजाते हैं। अपने डंडे आगे और पीछे वाले साथी से एक लय और ताल के साथ टकराते है, इसमें सभी पुरुष नर्तक अलग अलग स्वांग बनाकर नृत्य करते हैं। जैसे महिला, राजनेता , सन्यासी देवता, विदेशी पर्यटक आदि

यहां अमीर-गरीब सब साथ है

मोमासर में होली के अवसर पर गीन्दड का आयोजन किया जाता है, जिसमे पूरी रात गीन्दड नृत्य होता है इसमें सभी जाति समुदाय अमीर गरीब एक साथ नृत्य करते है। कार्यक्रम का आयोजन मोमासर के मुख्य बाजार में पुराने कुएं के चारों और किया जाता है। इसके लिए जहां गीन्दड खेलने के लिए बनाया जाने वाला खेल मैदान बलुई मिट्टी डालकर तैयार किया जाता है। वहीं पूरे बाजार को रंग बिरंगी रौशनी और फर्रियो से सजाया जाता है, जहां हजारों लोग एक साथ नृत्य करते है। जिसे देखने के लिए दूर दूर के लोग पूरी रात बैठे रहते हैं।ये है मोमासर की गीन्दड का इतिहास

मोमासर उत्सव के निदेशक और जाजम फाउंडेशन, जयपुर के सीइओ विनोद जोशी ने बताया की मोमासर में गीन्दड की शुरूआत सन् 1941 में हुआ था। देश के स्वतंत्रता से पूर्व 1941 में बीकानेर राजा के यहां पुलिस में नत्थू राम शर्मा नाम के खांडल ब्राह्मण जो सरदारशहर के थे, बीकानेर में क्लर्क के पद पर तैनात थे। उनका तबादला बीकानेर से मोमासर हुआ। वे बीकानेर की प्रसिद्ध लोक नाट्य परंपरा रम्मत के पारंगत कलाकार थे। मोमासर में आकर इसका सम्पर्क मोमासर के नाई समुदाय से हुआ जो उस समय के प्रसिद्ध लोक भजन गायक थे। उस दौर में मोमासर में होली के अवसर पर कुश्ती और माला देने की परंपरा होती थी। जब 1941 में समय पर बरसात नहीं हुई और अकाल पड़ने की आशंका बढ़ गई तब नत्थु राम शर्मा ने ग्रामीणों के सहयोग से अखंड कीर्तन ठाकुर जी मंदिर में प्रारंभ किया। इसी कीर्तन के पाठ के दौरान गांव मे जमकर बरसात बरसी। लोगों का नत्थूराम की बातों पर बहुत विश्वास होने लगा। फिर जब होली का समय आया तो वे स्वयं गांव के पीपल गट्टे पर शिव भगवान का रूप धर के बैठ गए। गांव के लोगों ने पहली बार ऐसा रूप देखा जैसे स्वयं शिव बिराजमान है। उनके साथ गांव के युवा गायक कलाकारो ने उनके कहे अनुसार पहली बार होली पर कुश्ती, माला देने या वजन उठाने को छोड़कर गीन्दड़ किया और गांव के लोगों ने उसको बहुत सराहा। तभी से गांव की यह परम्परा ख्याति प्राप्त करती रही। आज देश विदेश में अपनी शानदार सांस्कृतिक पहचान बना ली है।

क्या सकारात्मक प्रभाव हुआ इसका

वर्तमान में मोमासर में गीन्दड़ का आयोजन चार दिन तक होता है इस अवसर पर मोमासर निवासी जो व्यापार या अन्य कार्य के लिए बाहर रहते है, वो होली पर मोमासर अवश्य आते हैं। इस बहाने गांव से जुड़े हुए है साथ ही गीन्दड़ आयोजन के दौरान चंग प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जाता है। जिसमें आसपास के क्षेत्र की 8-10 धमाल टीम हिस्सा लेती है , इसमें भी विजेताओं को सम्मानित किया जाता है। जिस वजह से आज भी पुरानी लोककला को जिंदा रखे हुए है।कौन करवाता है आयोजन?

हालांकि इसका आयोजन ग्राम पंचायत और ग्रामीण मिलजुल के करते है लेकिन आर्थिक सहयोग मोमासर निवासी और बेल्जियम प्रवासी भामाशाह सुरेन्द्र पटवारी द्वारा सुरवी चेरीटेबल ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। जिसमें बाजार की सजावट से लेकर उत्कृष्ट स्वांग एवं नृत्य करने वाले खिलाड़ियों को पुरस्कार दिया जाता है। हालांकि गीन्दड में भाग लेने वाले नृतक कलाकार अपनी तैयारी अपने स्तर पर करते है, जिसके लिए वे होली से कई दिन पहले इसकी तैयारी शुरू कर देते है।

Author