
बीकानेर,आज कथापुरुष चन्द्र की पुण्य तिथि है । सृजन ही उनका जीवन था । उन्होंने कभी कोई नौकरी नहीं की । फ्रीलांसिंग करते हुए उन्होंने 200 से अधिक पुस्तकों का सृजन किया, जिनमें 98 उपन्यास और 36 कहानी संग्रह शामिल हैं । उनका पहला उपन्यास ‘संन्यासी और सुंदरी’ 1954 में प्रकाशित हुआ और आखिरी उपन्यास ‘ये उबली मछलियां’ उनके देहावसान के बाद 2010 में आया ।
कमलेश्वर ने सन 1993 में उनके सम्बन्ध में लिखा था,’ मैं मानता रहा हूँ कि राजस्थान ही नहीं,राजस्थान के बहाने चन्द्र ने भारतीय यथार्थ को रूपाकृति दी है । कई ऐसे राजस्थानी लिप्यांतरकार भी हैं, जो राजस्थान की बोधपरक परंपरा को आधुनिक रूप देकर अपने नाम से भुना रहे हैं । पर वे बहुत दूर तक साथ नहीं दे पाएंगे क्योंकि उनके पास अंगरखा तो है, पर भारत के इस प्रदेश की पहचान नहीं । चन्द्र ने लगातार जीवंत राजस्थान को उत्कीर्णन किया, इसलिए उनकी रचनाएँ अपनी राजस्थानी पहचान के बावजूद आधुनिक भारत की रचनाएँ हैं ।’
राजेन्द्र यादव ने उनके देहावसान पर ‘हंस ‘ अप्रैल,2009 के सम्पादकीय में अपने मित्र के बारे में लिखा था,’ चन्द्र प्यारा आदमी था और उसे गर्व था कि वह सिर्फ लेखन पर स्वाभिमान से जीता रहा …हम सब उम्र के उस मुकाम पर हैं कि जहां एक- एक कर के सबको जाना ही है मगर चन्द्र के साथ बीता साठ साल का साथ कम नहीं होता । उसके जाने से अपना ही कोई हिस्सा टूटता हुआ लगता है । ‘
मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे उनका असीम स्नेह मिला । वे मेरे अभिभावक थे, मेरे प्रेरणापुंज थे ।
अपने विपुल सृजन के माध्यम से वे आज भी हमारे पास और साथ हैं । उन्होंने कहा था, ‘ मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना यही है कि मैं अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिये इस जीवन में सब कुछ पालूं – अर्थ, काम और यश। फिर उन्हीं के जरिये सदियों तक जिंदा रहूं । मैं देखूंगा नहीं उस कीर्ति को, लोग उन्हें पढ़ें तो मैं अपनी कहानियों,उपन्यासों से निकलकर उनके सम्मुख उपस्थित हो जाऊं ।