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बीकानेर,हर वर्ष 14 सितंबर को देश में हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. यह दिन हिंदी भाषा के महत्व को पहचानने और युवा पीढ़ी को इसके अधिक उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करता है. लेकिन आज हिंदी की चमक आधुनिक युग की भाषा की मांग के सामने फीकी सी पड़ रही है.

हिंदी दिवस पर स्पेशल रिपोर्ट…

जयपुर. भारत की राजभाषा हिंदी, जिसका प्रचलन आदिकाल से बताया जाता है, जैसे-जैसे काल परिवर्तित होते गए वैसे-वैसे हिंदी में नए शब्दों का जन्म होता चला गया. लेकिन आज हिंदी की चमक आधुनिक युग की भाषा की मांग के सामने फीकी सी पड़ रही है. आज भी हिंदी भाषा का अस्तित्व भले ही है लेकिन अंग्रेजी इस पर प्रहार करती नजर आती है. देश-प्रदेश के ज्यादातर निजी स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई पर ही जोर दिया जा रहा है. अभिभावक भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में ही पढ़ाने को प्राथमिकता देते हैं. आलम ये है कि राजस्थान में तो सैकड़ों हिंदी मीडियम स्कूलों को ही इंग्लिश मीडियम में कन्वर्ट कर दिया गया है.

भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी की लोकप्रियता का जश्न मनाने के लिए 14 सितंबर एक दिन तय किया हुआ है. इस दिन की सरकारी-गैरसरकारी कार्यक्रम होते आए हैं और इस बार भी होंगे. क्योंकि 1949 में इसी दिन भारत की संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को भारत गणराज्य की आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया था. इसी गणराज्य के सबसे बड़े प्रदेश राजस्थान में भी हिंदी दिवस पर कई आयोजन होंगे, लेकिन इन आयोजनों के बीच प्रदेश के मुखिया का एक सार्वजनिक बयान जहन में आता है, जिसमें वो खुद को बचपन से अंग्रेजी के खिलाफ तो बता रहे हैं लेकिन आगे कहते हैं कि अब मालूम पड़ा है कि बिना इंग्लिश के दुनिया में काम नहीं चल सकता.

क्या हिंदी को बिसराते हुए अंग्रेजी की तरफ बढ़ना सही

इसी सोच से बीते दिनों उन्होंने प्रदेश के सैकड़ों हिंदी मीडियम स्कूलों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में कन्वर्ट कर दिया और यहां पढ़ रही छात्राओं के मुंह से अंग्रेजी सुनकर वो गद-गद भी हो गए. हालांकि प्रदेश के सरकारी स्कूलों में इस बार बीते साल की तुलना में नामांकन घटा है. लेकिन प्रदेश के शिक्षा मंत्री की मानें तो पिछली दफा नामांकन बढ़ने का एक कारण कोरोना कालखंड रहा. जिसकी वजह से एक साथ 2 साल का कोटा पूरा हुआ और अब जैसे-जैसे इंग्लिश मीडियम स्कूल को और बढ़ाएंगे, प्री प्राइमरी एजुकेशन में इंग्लिश मीडियम शुरू करेंगे तो इससे नामांकन भी बढ़ जाएगा.

वहीं, इसमें भी कोई दो राय नहीं कि निजी स्कूलों में अंग्रेजी पर बहुत जोर दिया जाता है. ज्ञान अर्जन करने का माध्यम भाषा होती है, चाहे इंग्लिश हो या हिंदी. स्कूल हिंदी को माध्यम इसलिए नहीं बना पाते, क्योंकि हिंदी वैश्विक स्तर की भाषा नहीं है और एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती है. जबकि अंग्रेजी पूरे विश्व में बोली और समझी जाती है. आज एक 3 साल का मासूम अंग्रेजी के 2 शब्द बोलता है तो उसकी मां फूले नहीं समाती. यही नहीं हम भारतीय विशेषकर नौजवान हिंदी भाषा को बोलने से हिचकिचाने लगे हैं, क्योंकि पढ़े लिखे लोग जो महानगरों में नौकरी करते हैं, उन्हें हिंदी का कोई भविष्य दिखाई नहीं देता है. उनका मानना है कि किसी भी नौकरी को पाने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना जरूरी है. विशेष तौर पर युवाओं के बीच तो हिंदी जैसे गुम सी होती जा रही है.

आलम ये है कि उच्च शिक्षा में तो ज्यादातर कोर्स अंग्रेजी में ही हैं. उनकी किताबें यहां तक की डिग्री तक अंग्रेजी में ही बन रही हैं. शायद यही वजह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद आधुनिकता के इस दौर में हिंदी पीछे छूटती जा रही है. विशेषज्ञों की मानें तो जब से कॉरपोरेट कल्चर डेवलप हुआ है, तब से अंग्रेजी का प्रसार ज्यादा हुआ. लेकिन आज छात्र इंग्लिश में पढ़ रहे हैं और बोल हिंदी में रहे हैं. जिसकी वजह से न तो छात्र हिंदी भाषी हो पाए और न ही अंग्रेजी भाषा के समर्थक हो पा रहे हैं. विशेषज्ञ डॉ. अमित व्यास की मानें तो यहां साइन करने से लेकर कानूनी आदेश तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग हो रहा है. जब तक अपने आचार विचार में हिंदी को प्रयोग में नहीं लाएंगे, अपने घर से इसकी शुरुआत नहीं करेंगे, तब तक हम हिंदी भाषी नहीं कहलाएंगे.

हिंदी भाषा की विशेषज्ञ डॉ. मधु गुप्ता के अनुसार देश की राष्ट्रभाषा का सिंहासन अभी भी खाली पड़ा हुआ है. जिस पर अंग्रेजी या फिर किसी भी प्रांतीय भाषा को नहीं बैठाया जा सकता. हिंदी के अलावा कोई विकल्प नहीं है. आवश्यकता इस बात की है कि जन-जन में हिंदी के प्रति राष्ट्र भावना जगानी पड़ेगी. बताना पड़ेगा कि हिंदी में कितना सामर्थ्य है. जरूरी है हिंदी को आम बोलचाल की भाषा बनाया जाए. उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि राजस्थान में विडंबना है कि यहां हिंदी मीडियम स्कूलों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में बदला गया. क्या अंग्रेजी से ही रोजी-रोटी चलने वाली है, तो जापान, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश भी तो अपनी भाषा के बल पर चल रहे हैं.

हालांकि, नई शिक्षा नीति 2020 में हिंदी भाषा के अस्तित्व पर जोर दिया गया है. नई शिक्षा नीति में पहली कक्षा से पांचवीं कक्षा तक अपनी मातृभाषा में पढ़ाई हो सकेगी. बिना इस तरह के सरकारी प्रयासों के हिंदी को प्रचारित भी नहीं किया जा सकता. हालांकि अंग्रेजी पढ़ना-बोलना गलत नहीं, लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या हिंदी को बिसराते हुए अंग्रेजी की तरफ बढ़ना सही है?

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