बीकानेर, रांगड़ी चौक के बड़ा उपासरे में गुरुवार को यति अमृत सुन्दर ने कहा कि भक्तामर स्तोत्र की 20 व 21 की गाथा जैन दर्शन के देव पद से संबंधित है। जैन धर्म में देवों को अरिहंत, जिन, केवली भगवंत आदि नामों वंदना की जाती है। राग और द्वेष विजेता अरिहंतों एवं सिद्धों को अपना देव माना है जो कि वास्तविक राग और द्वेष विजेता होने से वीतरागी है।
परमात्मा अपूर्व संतोष, परम तृप्ति व महानंद के प्रदाता है। वीतराग परमात्मा या देव किसी को सुख दुख नहीं देते। जीव को सुख-दुख अपने संचित कर्मों के अनुसार मिलते है। भक्तामर स्तोत्र के रचयिता मानतुंगाचार्य ने परमात्मा की तुलना हीरे से की है। हीरे में एकत्व भाव रहता है वह बिखरता नहीं। परमात्मा जैसा ज्ञान संसार में किसी के पास नहीं होता। सिद्ध पद ही संसार से मुक्ति का पद प्राप्त कर सकते है।
यति सुमति सुन्दर ने कहा कि पर परिवाद यानि निंदा बड़ा पाप है। निंदा से पुण्य से मिली जुबांन से पाप कर्म का बंधन होता है। निंदा क्षणिक सुख देती है, लेकिन अनेक पापों को जन्म देती है। लोग अपने दुख तकलीफ को कम करने, दुख को सुख में परिवर्तन करने और अपनी पीड़ा पर पट्टी लगाने के लिए निंदा करते है। निंदा से निंदनीय कोई कार्य नहीं है। उन्हांने भजन ’’’’ उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहां जो सोवत है। जो सोवत है वह खोवत है जो जागत है पावत है’’ सुनाते हुए कहा कि हमें आंतरिक चेतना जागृत करते हुए 18 पापों से बचना है तथा सत्य साधना के माध्यम से आत्म व परमात्म तत्व को प्राप्त करना है। यतिनि समकित प्रभा ने कहा कि ’’जीवन जितना सादा होगा, तनाव उतना आधा होगा’’ सुनाते हुए कहा कि सादगी, सरलता, सहजता, स्वाभाविकता व समता भाव में रहने से तनाव कम होता है।