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बीकानेर,पटाखे की मातृभूमि चीन को माना जाता है। शुरुआत में वहां पटाखे बनाने के लिए न तो फास्फोरस का प्रयोग होता था और ना ही पोटाश का। पटाखे पूरी तरह ईको फ्रेंडली थे और बांस के बने होते थे। सदियों से न केवल हमारे देश में बल्कि विश्व के लगभग सभी देशों में उत्सव-खुशी के अवसर पर आतिशबाजी अर्थात पटाखे चलाने की परम्परा रही है। पटाखों से उत्पन्न कर्णभेदी ध्वनि,जहां मनुष्य को एक भयमिश्रित प्रसन्नता प्रदान करती है। वहीं आग का सितारों के रूप में नाचना,ऊपर से नीचे गिरना मनुष्य को नयनाभिराम लगता है। आतिशबाजी उर्दू का शब्द है। इसमें आतिश का अर्थ होता है, आग और बाजी का अर्थ है खेल। यानी आतिशबाजी का अर्थ हुआ आग का खेल। जहां अन्य प्राणियों के लिए आग भय की वस्तु है। वहीं मनुष्य ने आग को भी खेल की वस्तु बना लिया। यह केवल मनुष्य के विलक्षण मस्तिष्क का ही कमाल है। अब बात करते हैं, शुरुआती दौर में पटाखे कैसे बनते थे। दरअसल चीन में जलावन के तौर पर हरा बांस इस्तेमाल करने की परम्परा थी। इस बांस 1896

आई और आकर्षक चिंगारी भी देखने को मिली। चीन में करीब पांचवीं सदी से इन पटाखों को छोड़ना हर धार्मिक उत्सव का अनिवार्य अंग हो गया। चीन से बाहर बारूद और पटाखे ले जाने का श्रेय खोजी यात्रियों को खासकर मार्कोपोलो को है। वहां से पटाखा पहले मध्य-पूर्व पहुंचा और बाद में यूरोप। ब्रिटिश स्कॉलर रॉजर बेकन ने पटाखे निर्माण में प्रयोग किए जाने वाले बारूद में काफी सुधार किए। वर्ष 1550 में बारूद में 75 प्रतिशत पोटेशियम नाइट्रेट, 10 प्रतिशत गंधक और 15 प्रतिशत चारकोल मिलाया जाने लगा, जो आज तक प्रचलित है। अमरीका में आतिशबाजी सत्रहवीं सदी में शुरू हुई। ब्रिटेन में वर्ष 1730 में आतिशबाजी का सार्वजनिक आयोजन किया गया। शुरुआत के पटाखे और आतिशबाजी में सिर्फ नारंगी व सफेद चिंगारी निकलती थी। उन्नीसवीं सदी में रंगीन आतिशबाजी शुरू हो गई। बारूद में बेरियम मिलाने से हरा, तांबा मिलाने से नीला, सोडियम मिलाने से पीला व स्ट्राशियम मिलाने से लाल चिंगारी मिलने लगी। पोटेशियम नाइट्रेट की जगह पोटेशियम क्लोरेट मिलाने से भी रंगों को आकर्षक बनाया जाने लगा। हमारे देश में दिवाली की रात को लगभग तीन घण्टे में जितने पटाखे चलते हैं, उनका निर्माण करने के लिए शिवकाशी में स्थित अनेक पटाखा निर्माता फैक्ट्रियों को तीन सौ से भी अधिक दिन लगते हैं। यद्यपि भारत में अनेक स्थानों में पटाखे बनाने वाली फैक्ट्रियां हैं। किन्तु सबसे अधिक शिवकाशी में हैं। क्योंकि वहां की कम वर्षा और शुष्क वातावरण इसके लिए उपयुक्त है। विश्व के देशों को फटाखा निर्यात करने में चीन का एकाधिकार रहा है। किन्तु अब भारत से भी अनेक देशों में पटाखों का निर्यात किया जाता है। की गांठ फटाक की तेज आवाज के साथ फटती थी। ऐसा माना जाता था कि इस आवाज से बुरी आत्माएं दूर भागती हैं। बाद में सार्वजनिक तौर पर हरे बांस को जलाने का आयोजन किया जाने लगा। बुरी आत्मा का नाम नियान रखा गया और इस आयोजन को ‘पाआचक’ नाम दिया गया। बाद में पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर और चारकोल को मिलाते समय दुर्घटनावश बारूद की खोज हुई तो इस आयोजन की शक्ल बदल गई। अब बारूद के मिश्रण को बांस में भरकर आग में फेंका जाने लगा। इससे धमाके में तेजी

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