बीकानेर,पावली का त्योहार अंधेरा दूर कर रोशनी बिखेरता है. सैकड़ों वर्षों से दिवाली पर मिट्टी के दीपकों से दिवाली रोशन होती आई है. लेकिन अब बाजार में चाइनीज दीपकों और लाइट के चलन ने मिट्टी के दीप बनाने वाले कुम्हारों के घरों में अंधेरा कर दिया है.बीकानेर. अंधेरे से उजाले की ओर का पर्व दीपावली है. दीपावली के दिन हर जगह उजियारा नजर आता है. पुराने समय में घर प्रतिष्ठान और हर जगह मिट्टी के दीपक में घी और तेल डालकर रूई की बाती से रोशनी की जाने की परंपरा रही है. दीपावली के मौके पर 5 दिन तक होने वाली दीपोत्सव पर्व पर बड़ी संख्या में मिट्टी के दीपक की बिक्री होती रही है. बदलते समय में इन दीपक की जगह रंग बिरंगी फुलझड़ियों वाली लाइटों ने ले ली है. अब चाइनीज लाइट भी इन दीपक बनाने वाले कारीगरों पर भारी पड़ रही हैं. मिट्टी के दीपक लाना उनमें रूई की बाती और घी तेल डालकर जलाकर रोशनी करने की जगह इलेक्ट्रॉनिक लाइटों को घरों में लगाने की आदत ने इन मिट्टी के दीपक बनाने वाले कारीगरों को मुसीबत में डाल दिया है. लोगों के घरों में उजियारा करने वालों के घर अंधेरा: दीपावली के मौके पर कई महीनों पहले मिट्टी के दीपक बनाकर दीपावली के दिन लोगों के घरों में उजियारा करने वालों के घर अंधेरा नजर आता है. बदलते समय में बढ़ती महंगाई और इलेक्ट्रॉनिक्स लाइटें इसका बड़ा कारण है. इसके अलावा कुम्भारों को सरकारी स्तर पर प्रोत्साहन नहीं मिलना भी बड़ा कारण कहा जा सकता है. पहले लोग दीपावली के मौके पर परंपरा के मुताबिक मिट्टी के दीपक जलाया करते थे. लोग अब समय की व्यस्तता और दीपक लाकर लगाने की झंझट से बचने के लिए सीधे चाइनीज और दूसरी तरह की लाइट्स खरीद कर लाते हैं. जिसके चलते इन दीपक की बिक्री कम हो गई है. महंगाई भी कारण: दीपक बनाने वाले कारीगर हरी और ताराचंद बताते हैं कि हम लोग पहले खूब दीपक बेचा करते थे, लेकिन आजकल लोग दीपक खरीदने में कम दिलचस्पी दिखा रहे हैं और केवल शगुन के नाम पर कुछ दीपक की खरीदारी कर औपचारिकता कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि पहले के हिसाब से मिट्टी महंगी मिलने लग गई है जिसके चलते लागत ज्यादा आती है और लोग दीपक खरीदते वक्त लोग मोलभाव कर सस्ता लेना चाहते हैं.
कई लोग छोड़ चुके पुश्तैनी काम: कारीगर ताराचंद ने बताया कि अब इस काम में ज्यादा मेहनताना नहीं मिलता है और परिश्रम भी बहुत होता है, जिससे घर चलाना मुश्किल है. उन्होंने कहा कि सरकारी स्तर पर बातें तो खूब होती है, लेकिन किसी तरह का कोई प्रोत्साहन और सहायता हमें नहीं मिलती है जिसके चलते अब हमें भी इस काम को धीरे-धीरे बंद करना पड़ेगा. उन्होंने बताया कि यह हमारा पुश्तैनी काम है लेकिन कई लोग इस काम को अब छोड़कर दूसरे काम धंधों में चले गए हैं और अब हमें भी उस ओर जाना पड़ेगा. सरकारी स्तर पर नहीं मिलता सहयोग: बात करें राज्य और केंद्र सरकारों की उन दावों और योजनाओं के धरातल पर पहुंचने की तो कुम्हारों के घरों के हालात को देखकर उनकी पोल खुलती नजर आती है. राज्य सरकार ने तो बाकायदा शिल्प और माटी कला बोर्ड का गठन भी किया हुआ है. लेकिन कुम्हारों के घरों की हालत और स्थिति को देखकर लगता है कि बोर्ड केवल कागजों में ही है. सरकार की आत्मनिर्भर योजना ऐसा लगती है कि इन लोगों के लिए नहीं बनी हुई है.
कुल मिलाकर अपने हुनर और हाथों से मिट्टी को दीपक के रूप में ढालकर लोगों के घरों में खुशियों की रोशनी करने वाले इन मेहनतकश मिट्टी के कारीगरों के घरों में भी दीपावली के दिन खुशियों की रोशनी हो ऐसे प्रयास न तो नजर आते हैं और न ही ऐसी तस्वीर इनके घरों को देखने पर दिखती है. जबकि जरूरत इस बात की है कि दूसरों के घरों में खुशियों की रोशनी करने वालों के घर भी एक खुशी का दीपक जरूर जले और इसके लिए जरूरत है कि हर हाथ आगे बढ़े.