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बीकानेर,क्या जन सुनवाई में राज्य सरकार की मंशा के अनुरूप परिवाद लेकर दूर गांवों से आने वाले लोगों के प्रकरणों का निस्तारण होता है ? या केवल निर्देश, आदेश, कार्रवाई, प्रक्रिया में ही परिवादियों को उलझाकर सुनवाई की इतिश्री कर ली जाती है। मामला गंभीर है कमिश्नर साहब। पिछली और इस जन सुनवाई का आकलन कर लीजिए कितने प्रकरणों के निस्तारण हुए हैं!पिछली बार 80 प्रकरणों की जिला कलक्टर ने सुनवाई की थी। निस्तारण के आंकड़ों का मिलान कर लें। राहत प्रतिशत और संतुष्टि जांच लें। इस बार की जनसुनवाई के आप खुद की साक्षी में आए 108 प्रकरणों में रिपीट कितने है ? जरा चैक करवा लें तो जनसुनवाई में सरकार की भावना के अनुरूप काम होने का सच सामने आ ही जाएगा। त्रिस्तरीय जन सुनवाई में प्रकरणों के निस्तारण का स्तर संतोषजनक नहीं है। वैसे खुद जिला कलक्टर संपर्क पोर्टल पर प्रकरणों का समयबद्ध व गुणवत्तापरक निस्तारण नहीं होने पर असंतोष जता चुके हैं। निस्तारण के जवाब से सरकार और प्रशासन की टरकाने और उलझाए रखने वाली छवि बन रही है। जिला स्तर के अफसरों की निस्तारण दक्षता पर सवाल उठे हैं। प्रशासन का रिकार्ड बोलता है कि बार बार चेतावनी के उपरांत भी राहत प्रतिशत और संतुष्टि में कमी आई है। कुछ मामलों में अनदेखी करने वाले कार्मिक के खिलाफ कार्रवाई भी हुई है। इस बार तो आप खुद देख लें कि जिला कलक्टर बीकानेर ने कहा कि सतर्कता समिति में दर्ज कुछ प्रकरणों के निस्तारण की अनुपालना रिपोर्ट में लापरवाही पाई गई है। यह सच है। लापरवाही के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप भी उतना ही है। यह आकलन करने और समझने की जरूरत है। यह काम लोक कल्याणकारी सरकार की भावना के इतर नेता कर रहे हैं। जनता भुगत रही है। नेताओं ने तो प्रशासन और सरकार के कानून कायदों को वोटों के खातिर गिरवी रख दिया है। सैकड़ों लोग महिनों दर महिनों से चक्कर लगा रहे हैं न विभाग कुछ कर पा रहा है और न जन सुनवाई ही कारगर है। जनहित नेताओं की बपौती, कानून कायदे और प्रशासन उनके हाजरिए हैं। ऐसे में जनसुनवाई कैसे कारगर हो सकेगी? बीकानेर आए प्रभारी सचिव भी शायद यही इंप्रेशन लेकर गए होंगे। मुख्यमंत्री जी चाहे तो अपने नेताओं की कार्य प्रणाली के ऐसे प्रमाण बीकानेर से ले सकते हो।

जिला स्तरीय जन सुनवाई संभागीय आयुक्त की उपस्थिति में हो और क्या मजाल की पिछले सुनवाई प्रकरण में आए परिवादी फिर आंसू बहाए। फिर पिछले सुनवाई जैसा उलझन भरा आश्वासन मिले तो उच्च अधिकारी की उपस्थिति की सार्थकता ही क्या ? इस जन सुनवाई में ऐसे प्रकरण कितने हैं जो मुख्यमंत्री, विभागीय अधिकारियों, जिला कलक्टर, विधायक और मंत्री को जन सुनवाई में दिए गए और कार्रवाई नहीं हुई? फिर आमजन की समस्याओं का संवेदनशीलता से निस्तारण का सरकार का ध्येय सिद्ध कहां हुआ है। क्या लगता नहीं है कि नेता तो वोटों की जन सुनवाई करते हैं ? वे समस्याओं के समाधान में वोट खोज रहे हैं। जनता की तकलीफ जाए भाड़ में। इसका सही समाधान निकालना नि:संदेह संभागीय आयुक्त की जिम्मेदारी है। दबंग संभागीय आयुक्त इस विडंबना से पार पा सकते हैं। त्रिस्तरीय जन सुनवाई में मुख्यमंत्री ने जिस भावना से यह व्यवस्था दी है उसकी कितनी सार्थक हैं? कमिश्नर महोदय आप खुद साबित करके दिखाएं कि जनसुनवाई राज्य सरकार की मंशा के अनुरूप ही हो।

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