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बीकानेर, जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ की वरिष्ठ साध्वीश्री, सज्जनमणि, प्रवर्तिनी शशि प्रभा म.सा. के सान्निध्य में गंगाशहर रोड की श्री पार्श्वचन्द्र सूरि गच्छीय दादाबाड़ी में चल रहे आठ दिवसीय (अष्टान्हिका) महोत्सव में सोमवार को 44 जोड़ों व बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने भक्ति गीतों के साथ भक्तामर महापूजन पूजन किया।
महोत्सव के प्रमुख संघवी व वरिष्ठ श्रावक राजेन्द्र लूणियां ने बताया कि संघवी श्रीकृष्णा लूणियां व अंजू लूणियां के वर्षीतप का पारणा मंगलवार अक्षया तृतीया को सुबह सवा ग्यारह बजे जैन विधि के अनुसार साध्वीवृंद की साक्षी में होगा। वर्षीतप पारणा के बाद दादाबाड़ी में दोपहर सवा बारह बजे लघु शांति स्नात्र पूजा व रात आठ बजे भक्ति संध्या होगी। महोत्सव का समापन 4 मई बुधवार को सुबह नौ बजे सुकृत अनुमोदनार्थ महोत्सव व दोपहर ढाई बजे से दादा गुरुदेव की पूजा के बाद होगा।
साध्वीश्री शशि प्रभा जी.मसा. ने प्रवचन में कहा कि लगभग 1300 वर्ष पूर्व सातवीं सताब्दी में जैनाचार्य मानतुंग स्वामी ने पापनाशक व संसार सागर में डूबते प्राणियों के आलम्बन स्वरूप भक्तामर की रचना की। संस्कृत भाषा में रचित भक्तामर स्तोत्र सभी स्तोत्रों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह स्तोत्र को कार्यसिद्ध कराने वाला, सर्व विघ्न विनाशक, रिद्धि-सिद्धि दायक है। इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्तोत्र है। इसमें भगवान आदिनाथ की स्तुति व वंदना है।
साध्वीजी ने कहा कि देश विदेश में जैनी व अजैनी श्रावक-श्राविकाएं भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों व मंत्रों से जीवन में चिंता,तनाव, रोग व परेशानियों से मुक्त होने का सफल प्रयास कर रहे है। भक्तामर स्तोत्र पर अनेक स्थानों पर मेडिकल व अन्य वैज्ञानिकों ने शोध भी की। शोध में भक्तामर स्तोत्र को शारीरिक, मानसिक व आर्थिक पीड़ा को दूर करने वाला बताया गया। भक्तामर अर्थात देवगण भक्ति करने वाले देव व देवेन्द्रों द्वारा स्तुति वंदना में उपयोग लिए जाने वाला स्तोत्र। उन्होंने कहा कि अनन्य भाव व भक्ति से भक्तामर स्तोत्र का पाठ नियमित करने से आत्मबल व भक्ति की शक्ति बढ़ती है। साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। साध्वीजी ने अक्षय तृतीय व वर्षीतप के महत्व को उजागर करते हुए कहा कि जैन समाज में वर्षीतप कोई सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि कर्म खपाकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए किया जाता है। उन्हांने श्रीकृष्णा व अंजू लूणियां सहित अनेक श्रावक-श्राविकाओं के वर्षीतप की अनुमोदना करते हुए कहा कि तप का अर्थ है स्वयं का अपनी इंद्रियों पन नियंत्रण कर कर्म की निर्जरा करना है।

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