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बीकानेर,अजित फाउण्डेशन के वार्षिक उत्सव के तहत संवाद श्रृंखला में अपनी बात रखते हुए ख्यातनाम इतिहासकार एवं लेखक डॉ. शेखर पाठक ने कहा कि जिस प्रकार देश के लिए हिमालय की आवष्यकता है उसी प्रकार राजस्थान के लिए अरावली की आवश्यकता है, हमें अरावली के संरक्षण हेतु हमेशा तत्पर रहना आवश्यक है। प्रत्येक स्थान का अलग-अलग भूगोल होता है उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है उसी प्रकार जब हम यात्राओं में निकलते है तो इन भौगोलिक स्थानों से बहुत कुछ सीखते है और देखते है। हम किसी भी स्थान के बारें में पुस्तकों से जान नहीं सकते, जहां तक संभव हो हमें वहां जाना चाहिए, जो कुछ हम अपनी आंखों से देखते है, हाथो से छूते है वह लिखे हुए से कई गुना हमें अच्छा प्रदर्शित होता है। हमारी प्रकृति के प्रति सोच विकसित होती है। जब हम रेगिस्तान की बात करते है तो हवा की दिशा में यहां के टीले एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिवर्तित हो जाते है उसी प्रकार पहाड़ों में नदियों के बहाव से रास्ते बदल जाते है।
प्राचीन समय में जब रेगिस्तान से यात्रा करते हुए व्यक्ति बद्रीनाथ जैसे स्थलों पर जाता तो वहां चारो ओर पानी के बहाव को देखकर आष्चर्यचकित हो जाता क्योंकि मरूस्थल में पानी का अभाव था। इसी प्रकार जब हम यात्रा करते है तो भाषा, पशु-पक्षी, प्राकृतिक वातावरण सब बदलता नजर आता है, और यह सब हमें बहुत ही सुखद एवं आनन्दमय लगता है। हम देखते है कि कई स्थानों के बारें में हमंे न तो मीडिया से कुछ पता चलता है और न अन्य किसी साधनों से। इन स्थानों का पता हमें वहां हो रहे छोटे-मोटे आन्दोलनों से पता चलता है। जब हम यात्राएं करते है तो आम आदमी से मिलते-जुलते है, वहां के रहन-सहन के अनुकूल बनते है, वहां के खान-पान को आत्मसात करते है तो यह सब जीवन में बहुत रोमांचकारी लगता है।
डॉ. शेखर पाठक ने अपने संवाद में इतिहास में विदेशी यात्रियों के यात्रा वर्णनों के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि अलग-अलग काल खण्डों में जो भी यात्री यहां आए उन्होंने अपने हिसाब से भारत के भूगोल एवं इतिहास के बारे में लिखा जिसके कई दस्तावेज आज भी हमें देखने को मिलते है। उन्होंने गुरूनानक जी को भारत के सबसे बड़े यात्री के रूप में दर्जा देते हुए कहा कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत लम्बी-लम्बी यात्राएं की तथा उनको संजोया।
डॉ. पाठक ने अपनी छह अस्कोट-आराकोट दषक यात्रा के बारे में बताते हुए कहा कि वह यह यात्रा 10 साल में एक बार करते है जिसमें उनको लगभग 45 दिनों का समय लगता है। सन् 1974 में शुरू हुई यह यात्रा गत 2024 में फिर से आयोजित हुई। यह यात्रा पहाड़ एवं नदियों के बीच चलती है जिसका उद्देश्य यात्रा के दौरान आने वाले क्षेत्रों में किस प्रकार का बदलाव आया है उसको देखना हैं। इस यात्रा में भाषा, रहन-सहन, वेषभूषा का तो बदलाव देखा ही जाता है साथ ही आत्मियता का एक संबंध बनता है जोकि पीढि दर पीढि चलता रहता है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. भंवर भादानी ने कहा कि इस तरह कि यात्राएं ऐतिहासिक यात्राएं होती है जिसमें हम वहां के प्राकृतिक भूगोल को जानते है तथा कठिन रास्तों से गुजर कर अपनी मंजिल तक पहुंचते है। जब हम यात्राएं करते है तो हमें मालूम चलता है कि देष एवं अन्य भौगोलिक स्थलों में किस प्रकार का बदलाव आया है। कार्यक्रम के अंत में संस्था निदेशक डॉ. विक्रम व्यास ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।
कार्यक्रम का संचालन संस्था समन्वयक संजय श्रीमाली ने किया। कार्यक्रम में डॉ. अजय जोशी, राजाराम स्वर्णकार, नदीम अहमद नदीम, राजेन्द्र जोशी, योगेन्द्र पुरोहित, हनीफ उस्ता, इसरार हसन कादरी, अविनाश व्यास, महेन्द्र पुरोहित, डॉ. कृष्णा आचार्य, कमल रंगा, अरमान, इमरोज, डॉ. रिेतेश व्यास, मनन श्रीमाली, सुषिला ओझा, हर्षित, आनन्द छंगाणी, मोहम्मद फारूक, ओम प्रकाश सुथार, महेश उपाध्याय, गिरिराज पारीक सहित कई युवा एवं गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।

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