बीकानेर, रांगड़ी चौक के बड़ा उपासरा में सोमवार को यतिश्री अमृत सुन्दरजी ने भक्तामर स्तोत्र की छठी व सातवी गाथा का वाचन विवेचन किया। उन्होंने कहा कि अल्पज्ञानी, शास्त्रों से अनभिज्ञ, अशिक्षित भी परमात्मा को अपना तथा अपने को परमात्मा का मानकर, समर्पण भाव से परमात्म भक्ति के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
उन्होंने कहा कि परमात्मा की अनन्य भाव से स्तुति,वंदना व भक्ति करने से प्राणियों के अनेक जन्मों के पाप व कर्म नष्ट हो जाते हैं। सूर्योदय से जैसे अंधकार समाप्त हो जाता है, वैसे ही भक्त केः अंतःकरण में व्याप्त कालिमा दूर हो जाती है । कालिमा के समाप्त होने पर वह आत्म व परमात्म स्वरूप के अलावा किसी को भी देखना पसंद नहीं करता। परमात्मा की असीम कृपा व अनुंकपा का अनुभव करने से अपने आप भक्ति भाव बढ़ने लगता है। रावण के एक प्रसंग के माध्यम से कहा सुदेव, सच्चे साधक, भक्त से अपने अहंकार दूर कर नमन व वंदन करना चाहिए। भगवान आदिनाथ की असीम कृपा से मानतुंगाचार्य में भक्ति भाव जागृत हो गया। सम्यक व परम ज्ञान के कारण भक्ति में आनंद से बोलता। साधना के मार्ग पर चलने के लिए मन को समझें वह सही रास्ते पर चले। मन को समझने व समझाने की शक्ति नहीं होने पर गुरु को सौंप दें। सत्य साधना भगवान की भक्ति की बढ़ने का प्रमुख मार्ग है।
यति सुमति सुन्दरजी 18 पापों में से क्रोध का वर्णन करते हुए कहा क्रोध, बहरा, अंधा, अग्नि है। अग्नि से जलने लगते है, मुख्य पतन का कारण। क्रोध से होश खोकर बेहोश हो जाता, विनय, सहजता,सरलता, सहनशीलता समाप्त हो जाता है। क्रोध से जीवन अग्नि में जलने लग जाता है। यतिनि समकित प्रभा ने कहा कि पाप के अनेक कारणों में राज व समाज होते है। आत्म स्व कल्याण के लिए हमें प्रदर्शन, दिखावें से बचकर एकांकी भाव लाना होगा।