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बीकानेर,विधानसभा चुनाव दिसंबर में हैं, और दोनों दलों के नेता अपने दिल्ली के आकाओं की तरफ देख रहे हैं| दोनों दलों में भयंकर गुटबाजी है| अपन राजस्थान की बात कर रहे हैं| जहां कांग्रेस बेहतर स्थिति में दिख रही है, कांग्रेस में सिर्फ दो ही गुट हैं| अशोक गहलोत गुट और सचिन पायलट गुट| जबकि भाजपा में जहां ईंट उठाओगे, एक नया गुट दिखाई देगा| पर दोनों पार्टियों में राजस्थान में एक बेसिक अंतर दिखाई देता है| राजस्थान में कांग्रेस हाईकमान का कोई गुट नहीं है| जबकि भाजपा में हाईकमान का भी एक गुट है|

सामान्यतया प्रदेश अध्यक्ष पार्टी हाईकमान का वफादार होता है| जबकि कांग्रेस में अशोक गहलोत ने अपने ही गुट का प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बनवा लिया है| कांग्रेस में अब दुविधा यह है कि वह सिर्फ गहलोत का चेहरा आगे रख कर चुनाव लड़ेगी या गहलोत के साथ सचिन पायलट का चेहरा भी रखेगी| लेकिन उसमें भी संशय है कि गहलोत ऐसा होने देंगे क्या| राहुल और प्रियंका गांधी की सचिन से नजदीकी के बावजूद गहलोत 2018 से सचिन पायलट को मात देते आ रहे हैं|

हाईकमान ने सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष के साथ साथ उप मुख्यमंत्री भी बनवा दिया था| लेकिन गहलोत ने उन्हें ऐसी कुंठा में डाला कि वह मुख्यमंत्री तो क्या बनते अपने दोनों पद भी गवां बैठे| राजनीति में अपने विरोधियों को फ्रस्ट्रेशन में डालना बहुत ही ऊंचे दर्जे की राजनीति होती है| यह महारत या तो मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की थी, या फिर राजस्थान में अशोक गहलोत की है|

सचिन पायलट ने 2018 में राहुल और प्रियंका से नजदीकी के चलते, 2020 में बगावत का डर दिखा कर और 2022 में गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष पद मिलने के मौके का फायदा उठाकर तीन बार मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की| लेकिन अशोक गहलोत ने कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद ठुकरा कर चार साल में तीसरी बार सचिन पायलट को मात दे दी| अब सचिन पायलट फिर फ्रस्ट्रेशन में आ गए हैं| उन्हें उम्मीद थी कि राहुल गांधी की यात्रा खत्म होने के बाद उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाएगा| उन्हें यह भी उम्मीद थी कि मल्लिकार्जुन खड़गे उन तीन नेताओं पर कार्रवाई करेंगे जिन्होंने 25 अक्टूबर को खुद उनका अपमान किया था| लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ| तो पायलट के सब्र का प्याला एक बार फिर भर गया है|

पायलट ने कहा है कि अब तो बजट भी पेश हो चुका है, पार्टी नेतृत्व ने कई बार कहा था कि जल्द ही फैसला होगा| लेकिन अभी तक हाईकमान ने कोई भी फैसला नहीं किया| बहुत हो चुका, हाईकमान को जो भी फैसला करना है वो अब होना चाहिए| सचिन पायलट ने यह कह कर कांग्रेस हाईकमान को डराया है कि नरेंद्र मोदी राजस्थान में बहुत एग्रेसिव तरीके से प्रचार कर रहे हैं। अगर कांग्रेस अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती है, तो तुरंत कदम उठाना चाहिए ताकि कांग्रेस लड़ाई के लिए तैयार हो सके|

पायलट हाईकमान को बताना यह चाहते हैं कि जितना एग्रेसिव हो कर वह काम कर सकते हैं, उतना एग्रेसिव अशोक गहलोत नहीं हो सकते| लेकिन राजनीति सिर्फ एग्रेसिव हो कर नहीं होती| अगर वह अशोक गहलोत से सबक नहीं लेना चाहते तो उन्हें वसुंधरा राजे से सबक लेना चाहिए| भाजपा हाईकमान पिछले पांच साल से उन्हें किनारे करने की कोशिश कर रहा है| वह जरा भी एग्रेसिव नहीं हुई| अब चुनाव आते ही राजस्थान भाजपा की राजनीति में वह फिर से ताकतवर बन कर उभर आई है|

गहलोत की तरह अपने विरोधियों को थका देने की महारत वसुंधरा की भी है| वसुंधरा की हैसियत कम करने के लिए भाजपा आलाकमान ने हरसंभव उपाय किए लेकिन जनता की नजरों में वसुंधरा के सामने भाजपा हाईकमान की ही किरकिरी हुई। वसुंधरा को किनारे लगा कर नया नेतृत्व उभारने के लिए तीन साल पहले अपेक्षाकृत कम अनुभवी सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और वसुंधरा को किनारे लगाने का काम सौंपा गया| तब से वसुंधरा ने खुद को पार्टी की गतिविधियों से अलग कर रखा था|

लेकिन चुनाव सिर पर आते ही गहलोत के सामने भाजपा की कमजोरी देखकर आलाकमान ने वसुंधरा राजे को फिर से भाजपा के पोस्टरों में जगह देना शुरू कर दिया है| हालांकि प्रदेश भाजपा के नेता अभी भी दावा कर रहे हैं कि मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा, लेकिन पार्टी कार्यकर्ता यह जानते हैं कि 2018 का चुनाव भी मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया था|

तब वसुंधरा से नाराज भाजपा और संघ के ही एक गुट ने नारा लगवाया था ” मोदी तुझ से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं|” लेकिन हुआ क्या, चुनाव प्रचार के आख़िरी दौर में वसुंधरा को ही आगे करना पड़ा, तभी भाजपा टक्कर में आ सकी और 77 सीटें हासिल कर सकीं, जबकि उससे पहले तो भाजपा 20-30 सीटों पर निपटती दिख रही थी| इसलिए पार्टी कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि गुलाब चंद कटारिया के राज्यपाल बनने से खाली हुए विपक्ष के नेता पद पर वसुंधरा राजे को बिठा कर जनता को स्पष्ट संदेश दिया जाए| लेकिन आलाकमान दुविधा में है, अगर कांग्रेस में असमंजस की स्थिति है, तो भाजपा में उससे ज्यादा है|

सतीश पूनिया पिछले तीन साल से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद पर हैं। लेकिन अपनी राजनैतिक जमीन मजबूत किए बिना सचिन पायलट की तरह वे भी जल्दबाजी में अपने आप को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने लग गए। इस कारण पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के कई धड़े बन गए और संगठन एकजुट होने के बजाय बिखर गया।

राजस्थान की राजनीति में जाटों की बड़ी एहमियत रही है। नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, दौलतराम सारण जैसे बड़े जाट नेता हुए, केंद्र में केबिनेट मंत्री बने, लेकिन कांग्रेस ने कभी किसी जाट को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया|

सतीश पूनिया जाट होने के कारण भाजपा के लिए भविष्य के नेता हो सकते हैं, लेकिन उनकी राह में हमउम्र और विद्यार्थी परिषद के साथी रहे गजेन्द्र सिंह शेखावत बैठे हैं, जो खुद भविष्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हुए हैं| शेखावत को लगता है कि राजपूत होने के कारण और मोदी व शाह की कृपा से वह मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि केंद्रीय नेतृत्व के चाहने के बावजूद 2018 में वसुंधरा राजे ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं बनने दिया था| दूसरी तरफ प्रदेश के राजपूतों में राजेंद्र राठौड़ की लोकप्रियता शेखावत से कहीं ज्यादा है, और राठौड़ भाजपा में शेखावत से बहुत वरिष्ठ भी हैं।

राजस्थान में जाट और राजपूत समुदाय में पुरानी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता हैं| कांग्रेस का जाटों पर और भाजपा का राजपूतों में प्रभाव रहा है| राजनीतिक समीकरणों की दृष्टि से वसुंधरा बहुत एडवांटेज में है। वह राजपूत मां और मराठा पिता की बेटी है, जाट राजा की पत्नी है, और घर में गुर्जर बहू है| जातीय समीकरण की दृष्टि से भाजपा को वसुंधरा ही फिट बैठती है| जैसे अशोक गहलोत को उनकी मर्जी के बिना कांग्रेस में किनारे नहीं किया जा सकता, वैसे ही वसुंधरा को उनकी मर्जी के बिना राजस्थान भाजपा में किनारे नहीं किया जा सकता| एक बार 2014 में भाजपा ने कोशिश की थी, तो पार्टी टूटने की कगार पर आ गई थी|

सतीश पूनिया की रुचि प्रदेश अध्यक्ष पर बने रहते हुए खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाए रखने में है। लेकिन प्रदेश भाजपा में अब वह अकेले पड़ चुके हैं। अधिकांश भाजपा नेता उनसे किसी न किसी कारण से नाराज हैं। हालांकि संघ में वसुंधरा विरोधी कुछ प्रचारक पूरी तरह उनके साथ हैं। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व के सामने असमंजस की स्थिति है।

वहीं वसुंधरा राजे भाजपा आलाकमान से प्रदेश संगठन के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश चाहती हैं ताकि प्रचार और टिकटों के बंटवारे में उनकी भूमिका अहम रहे| वह कोई भी पद अपनी भविष्य की राजनीति को सामने रखकर ही स्वीकार करेंगी| भाजपा आलाकमान की मुसीबत यह है कि पिछले 20 वर्षों में वसुंधरा राजे के कद के आसपास भी कोई अन्य भाजपा नेता राजस्थान में उभर नहीं सका है, जिस पर दांव लगाया जा सके। इसलिए एक बार फिर से चुनावों में वसुंधरा को ही आगे करना मोदी और शाह की मजबूरी है। उनके सर्वे यही बता रहे हैं कि इस बार गहलोत से मुकाबला करना आसान नहीं होगा।

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Bikaner 24X7 News उत्तरदायी नहीं है।)

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