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बीकानेर आज अपना 535 वां जन्मदिन मना रहा है।अल्हड़ अलबेला मस्ताना शहर अपने संस्थापक राव बीका के हठ को आज भी अपने स्वभाव में थामे हुए है। राव बीका अपने पिता जोधपुर के शासक राव जोधा के ताने को चुनौती मान अपने काका राव कांधल के साथ राज बनाने निकले तो रेतीले धोरो को फतेह करते इस इलाके में आ पहुंचे । जहां मां करणी के आशीर्वाद और प्रेरणा से विक्रम संवत् 1545 में एक भेड़पालक किसान नेरा के कहे स्थान पर इस नगर की नींव थरपी। जिस पर यह दोहा प्रचलित है –

पनरे सौ पैंताळवे सुद बैसाख सुमेर
थावर बीज थरपियो बीके बीकानेर।

राजशाही के काल में राव बीका से लेकर महाराजा सादुल सिंह तक के काल में कुल 23 शासको में महाराजा गंगा सिंह सर्वाधिक विजनरी शासक रहे। अक्तुबर 1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में जाने के लिए महात्मा गांधी को सहमत करने वाले गंगा सिंह ही थे । गंग नहर और बीकानेर रेलवे जैसे जनहितैषी काम करवाने वाले महाराजा को शहर के जन्मदिन के दिन याद करना लाजमी है।

534 सालो के इतिहास में इस शहर का साम्प्रदायिक सौहार्द्र गौर करने लायक है। सूरज निकलने से पहले मन्दिर की घण्टियाँ और मस्जिदों में अजान के स्वर एक साथ मिलकर इस शहर का संगीत बुनते है । वही गिरजाघरों में प्रार्थना के लिए बुदबुदाते होठ और गुरूद्वारे में अरदास के लिए पलटते पन्ने फिजाओ में प्रेम और आध्यात्म का राग अलापते है। कोटगेट की भीतरी सड़क दाऊ जी रोड पर नौगजा की दरगाह और दाऊ जी मन्दिर में एकसाथ दोनों धर्म के लोग मत्था टेकते है। इसीलिए तो कहा है-

बीकानेर की संस्कृति जैसी साझी खीर
नौगजा मेरे देवता दाऊजी मेरे पीर ।

इतिहास गवाह है इन सवा पांच सौ सालो में कोई इस संस्कृति को क्षति नही पहुंचा पाया। आजादी से पहले के साम्प्रदायिक दंगे हो, चाहे विभाजन की विभीषिका या फिर बाबरी मस्जिद टूटने की घटना इस शहर ने अपने परकोटे में बाहरी अजनबी हवा को घुसने नही दिया।

काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पढ़ते हुए आपको अहसास होता है कि बीकानेर, बनारस का जुड़वा शहर सा है ।इसीलिए तो इसे छोटी काशी कहा जाता है।

शहर के भीतरी भाग में बसा पुराना शहर अपने पाटों पर पूरी रात जागता है।पाटों की हथाइयो में “क्या ल्यायो” और “पगे लागणा” से शुरू होकर गांव गवाड से ठेठ अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव तक की चर्चाएं होती है। ज्योतिषीय ज्ञान में शहर का हर तीसरा आदमी पारंगत है । वहीं थियेटर से लेकर म्यूजिक ,पेंटिंग, पोएट्री और लिटरेचर की समझ रखने वाला यह शहर अदभुत ही है । जहां हर सप्ताह पुस्तक लोकार्पण से लेकर साहित्यिक चर्चाओं तक के आयोजन भीड़ भरे रहते है।

स्व. हरीश भादाणी ,स्व. छगन मोहता और स्व. यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ से शुरू हुई परम्परा को धीर गम्भीर डॉ.नंदकिशोर आचार्य से लेकर कई नामी गिरामी लेखकों , विचारकों और चिंतकों की नई पीढ़ी आगे बढ़ा रही है जो इस जमीन पर साहित्य , दर्शन और विचार की नगर चेतना को बनाए हुए है।

यहां की होली तो जग प्रसिद्ध है ही । होलिका पर स्वांग, गैर और रम्मत की परंपरा उसी सिद्दत के साथ आज भी निभाई जा रही है । रसगुल्लों की मिठास और भुजिया का तीखापन इस शहर में एक साथ मिलता है ।खाने खिलाने के शौकीन शहर के अंदरुनी भाग में जहां अधिकतर दुकाने खाने पीने की चीजों की नजर आती है वहीं सबका अपना ज़ायका है । यहां कि चाय पट्टी किसी बड़े शहर का कॉफ़ी हाउस सा है , जहां कभी अज्ञेय अपने दोस्तों के साथ गम्भीर साहित्यिक विमर्श करते थे। आजकल वहाँ दिन उगते ही आँख मलते लोग कचौरी समोसों से दिन की शुरुआत करने आते है। इसीलिए अज्ञेय ने ही कहा था ,” बीकानेर के आधे लोग कचौरी बनाते है और आधे लोग खाते है।”

इस खान पान के शौकीन और मस्तमौले शहर के लोग अपनी बात के उतने ही गम्भीर है। इसीलिए तो कहा है –
जळ ऊँडा थळ उजळा पाता मैंगल पेस
बळिहारी उण देस री रायसिंघ नरेस ।
अर्थात यहां पानी जितना गहरा है उतनी गहराई और सूझबूझ यहां के लोगो में है। ऐसे देश पर जिसके राजा रायसिंह है उस देश पर बलिहारी जानें का मन करता है।

देश आजाद हुआ तो बीकानेर पहली रियासत थी जहां के शासक सादुल सिंह ने सबसे पहले भारत संघ में विलय पर हस्ताक्षर किये। लोकशाही के दौर में मुरलीधर व्यास जैसे जननेता हुए जिन्होंने तत्कालिक मुख्यमन्त्री को मांग न मानने तक शहर में घुसने न देने की चेतावनी दे डाली। आजादी से पहले ही यहां प्रजा परिषद के जरिए राजनीतिक आंदोलन शुरू हो गए थे वहीं आजादी बाद सभी राजनीतिक विचारों के अलग अलग खेमे के धुरन्धरो ने यहां सामूहिक नगर चेतना को कभी खण्डित न होने दिया इसीलिए आज भी वाजिब मसलों पर सभी दलों के लोग वैचारिक साम्य न हो जाने के बावजूद भी एकजुट हो जाते है ।
कभी पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह बीकानेर के साम्प्रदायिक सौहार्द्र की चर्चा अपने भाषणों में पूरे देश में किया करते थे । पांच सौ तैतीस सालों की यह विरासत अटूट प्रेम को मजबूती से थामे हुए है इसीलिए मरहूम शायर अजीज आजाद कहते है –
मेरा दावा है सब जहर उतर जाएगा
तुम मेरे शहर में दो दिन ठहर के तो देख।

आज अपने शहर के पांच सौ पैंतीसवें जन्मदिन पर अपनी परम्परा को निभाते हुए बाजरे के खिचडे के ‘सबड़के’ लेते हुए हम इस उम्मीद में है कि इक्कीसवीं सदी के साथ मेरा शहर कदमताल
कर पाएगा ।

इस स्थापना दिवस के दिन तुम्हे जन्मदिन मुबारक बीकानेर । बस यही दुआ है कि मेरे शहर को किसी की नजर ना लगे।

 

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