बीकानेर! पाप का उदय होने पर असाता की प्राप्ति होती है ! पाप 18 प्रकार से बनता है और 82 प्रकार से भोगा जाता है! पुण्य नौ प्रकार से बनता है और 42 प्रकार से भोगा जाता है ! पाप हमें अशांत व दुखी करता है ! इसलिए जीवन में पाप का त्याग करो और पुण्य का अनुसरण करो, यह बात आचार्य श्री 1008 विजयराज जी महाराज साहब ने शुक्रवार को सेठ धनराज ढढ्ढा कोटड़ी में चातुर्मास के दौरान होने वाले नित्य प्रवचन में कही!
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने पाप और पुण्य के बारे में एक प्रसंग सुनाते हुए कहा कि एक बार पाप और पुण्य में बहस हो गई! पुण्य ने कहा संसार में सारे लोग मुझे चाहते हैं, इसलिए मैं बड़ा हूं! पाप ने कहा सब तुझे चाहते जरूर हैं लेकिन करते सब मुझे है, इसलिए मैं बड़ा हूं! महाराज साहब ने कहा कि बहस में पाप जीत गया, उसने यह साबित कर दिया! आचार्य श्री ने कहा कि हम चाहते तो पुण्य हैं लेकिन करते पाप हैं! इसलिए पुण्य को पाना है तो पापकर्म से मुक्ति का कार्य करना पड़ता है! पाप को नहीं चाहोगे और पाप करते रहोगे तो भी पाप बड़ा होता जाएगा! पुण्य को चाहते हो लेकिन करोगे नहीं तो पुण्य बड़ा नहीं होगा! लेकिन होता क्या है..?, हम पाप को छुपा छुपा करते हैं और पुण्य दिखा- दिखा कर करते हैं! इससे पुण्य छोटा हो जाता है! महाराज साहब ने कहा याद रखो यह मनुष्य जीवन पुण्य को बढाने के लिए मिला है! हमें यह समझना होगा, जिस दिन यह समझ आ जाएगा, पापकर्म से मुक्ति मिलेगी, इसलिए कर्म को समझने का प्रयत्न करना चाहिए! जिसे कर्म समझ में आ जाता है उसे धर्म भी समझ में आने लगता है! जब तक आप कर्म को नहीं समझोगे, आपके जीवन में धर्म का प्रवेश नहीं होगा ! अगर आप धर्म को चाहते हो तो निरंतर सामायिक करो सामायिक करने से बहुत से पापों से आप बचते हैं!
आचार्य श्री विजयराज जी म. सा. ने हाथी और महावत की कथा सुनाते हुए कहा कि एक महावत के पास एक हाथी था! वह उसे रोज सरोवर में ले जाकर उसे खूब अच्छे से नहलाया करता , यह उसका नित्य कर्म था! हाथी भी रोज नहाने के बाद जब बाहर निकलता तो बाहर उसे जहां कहीं भी धूल मिलती, सूंड में भर-भरकर पूरे शरीर पर उछालता, यह देख महावत सर पीट लेता था! महावत को पता था कि यह हाथी का स्वभाव है! लेकिन महावत भी अपना कर्म कैसे छोड़ सकता था! ठीक वैसे ही सत्संग सरोवर है! हाथी की तरह संसारी होते हैं और महावत की तरह गुरु होते हैं! संसारी को गुरु सत्संग से खूब नहलाता है! लेकिन संसारी हाथी की तरह बाहर निकलते ही सब भूला देता है! वापस अपने नियम- कायदे में आ जाता है लेकिन महावत रूपी गुरु अपना पुरषार्थ करना नहीं भूलते!
उन्होंने 2004 में बीकानेर में हुए चातुर्मास को याद करते हुए कहा कि उस वक्त मैंने श्रावक कैसा हो और श्रावक को क्या करना चाहिए, श्रावक के ऐसे 21 गुणों पर चर्चा की थी! महाराज साहब ने कहा की मेरा कार्य अतीत की स्मृतियों को याद रखना भविष्य की कल्पना करना और वर्तमान में चिंतन करना है! यह मैं निरंतर करता रहता हूं! बीते कल का प्रसंग बताते हुए कहा कि गत दिन खरतरगच्छ संघ की महासत्ती जी दर्शनार्थ आयी तो छोटी सी बात में बहुत बड़ी बात कह कर गई,कहा कि आपके प्रवचन बहुत अच्छे हैं! महाराज साहब ने सत्संग में उपस्थित श्रावक- श्राविकाओं से कहा कि मैं भी जानता हूँ कि प्रवचन अच्छे हैं लेकिन कोई सुने ही नहीं, सुनते तो हैं पर धारण ही ना करे तो वह किसके लिए अच्छा हुआ..?! इसलिए धारण करने का प्रयास करो, जितना हम धारण करेंगे, उतना ही धर्म शसक्त होगा!
श्री शान्त क्रांति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजय कुमार लोढ़ा ने बताया कि सत्संग में आचार्य श्री ने एकासन, आयम्बिल, उपवास, तेला और बेला सहित अन्य उपवास करने वाले श्रावक- श्राविकाओं को आशीर्वाद दिया! उपस्थित जन समूह ने तपस्या करने वालों को धन्यवाद दिया! सत्संग विराम से पूर्व आस्था भरा भजन उम्र थोड़ी सी हमको मिली थी मगर! वो भी घटने लगी, देखते- देखते का समूह गान हुआ! सत्संग से पूर्व नव दीक्षित विशाल प्रिय जी म. सा. ने विनय सूत्रम पर ज्ञान चर्चा की एवं गुरु भजन प्रस्तुत किया!