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बीकानेर इंजीनियरिंग कॉलेज के 18 कार्मिकों को उच्च न्यायलय के आदेश पर पुन: नियुक्त का प्रकरण राजनीतिक डांवपेंज में उलझ गया है। इस मामले में भाजपा के महावीर रांका के नेतृत्व में धरना, प्रदर्शन और गिरफ्तारी का अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है। इस मामले में हाई कोर्ट के सिंगल बैंच के आदेश को सरकार नहीं मानती है तो पीड़ितों को डबल बैंच में जाना चाहिए था। फिर भी नहीं मानें तो न्यायलय की अवमानना की अर्जी (कोर्ट ऑफ कैंटेंप ) लगाई जा सकती थी। इस प्रकरण को चुनाव से पहले राजनीतिक मुद्दा बनाना कितना सार्थक है ? अब तक के एपिसोड से समझा जा सकता है। महावीर रांका ने दिल खोलकर सेवा, सहयोग और सहायता के कार्यों में आगे रहकर अपनी राजनीतिक छवि बनाई है। पैसे के बल पर भी उनको राजनीति करने में गुरेज नहीं रहा है। धरातल पर मुद्दों की राजनीति जोखिम भरा कदम होता है। पहली बार रांका ने मुद्दों की राजनीति की पहल की जिसमें उनको यर्थात समझ में आ गया। एक तो भाजपा में स्पष्ट रूप से एक गुट उनके खिलाफ दिखा। दूसरा वे अब तक मुद्दे को निर्णायक मोड़ तक नहीं ला सके। जैसा कि भाजपा विधायक बिहारी लाल विश्नोई का विधानसभा में आरोप है कि सरकार बदलने के बाद राजनीतिक दुर्भावना से इन 18 कार्मिकों दो साल पूरे होने पर नियमित नहीं किया गया। वेतन परिलाभ नहीं दिया गया। सातवें वेतन मान के साथ पर छठे वेतन आयोग के आधार पर वेतन दिया गया। चार साल की सेवा पूरी होने पर हटा दिया गया। यह आरोप अगर सही है तो कांग्रेस सरकार भाजपा नेताओं के राजनीति दवाब में आकर कैसे 18 कार्मिकों को नियुक्ति देगी? वैसे सरकार को कार्मिकों की आजीविका के साथ राजनीति खेल नहीं खेलना चाहिए। सरकार को मानवीयता और संवेदनशीलता का व्यवहार करना चाहिए। बाकी कार्यरत ऐसे कार्मिकों की तरह इन्हें भी नियुक्ति देना लोकतांत्रिक सरकार का सहज धर्म है।…….खैर । रांका राजनीतिक ताकत से कार्मिकों को नियुक्ति दिलाएं अन्यथा तो उनके इस कदम का कोई ओचित्य नहीं रह जाएगा। न कार्मिकों को नौकरी मिलेगी और न उनकी अगले चुनाव में कोई जन नेता की छवि ही चमक सकेगी। उलझन ही रहेगी।

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