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बीकानेर,वैसे तो हिंदू धर्म शास्त्रों में पंचांग के मुताबिक तिथियों का बड़ा महत्व है, लेकिन अन्य सभी तिथियों में एकादशी को विशेष माना गया है. वहीं, पूरे साल में देव प्रबोधिनी एकादशी यानी कि देवउठनी एकादशी को सबसे बड़ी एकादशी के रूप में माना जाता है, क्योंकि इस दिन मां तुलसी का शालिग्राम जी से विवाह होता है.आइए जानते हैं क्या है तुलसी-शालिग्राम विवाह का महत्व और उसकी पीछे की कथा.

बीकानेर. देव प्रबोधिनी एकादशी या फिर देवउठनी एकादशी का हिंदू धर्म शास्त्रों में विशेष महत्व है. इस दिन से मंगल कार्य शुरू हो जाते हैं. वहीं, इस दिन का एक महत्व तुलसी-शालिग्राम विवाह से भी जुड़ा है. वैसे तो तुलसी पत्ते के महत्व से सभी परिचित ही है, क्योंकि बिना तुसली के प्रसाद का भोग तक लगता है. शास्त्रों के मुताबिक भगवान विष्णु को लगाए भोग में तुलसी का होना बेहद जरूरी है, क्योंकि उन्हें तुलसी अति प्रिय हैं. क्या है तुलसी विवाह की कथा: पं. मनीष भारद्वाज बताते हैं कि पुराणों व शास्त्रों में तुलसी विवाह का विस्तृत जिक्र मिलता है. समुंद्र मंथन के दौरान राक्षस जालंधर प्रकट हुआ था और राक्षस कुल में पैदा हुई वृंदा नामक स्त्री से उसका विवाह हुआ था. कहते हैं कि राक्षस कुल में पैदा होने के बावजूद भी वृंदा भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थी. कालांतर में वृंदा का विवाह जलांधर से हो गया. वे कहती हैं कि वृंदा जहां दिनभर भगवान विष्णु की भक्ति में रमी रहती थी. वहीं, उनका पति जलांधर क्रूर और आततायी था.

देव प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह की कथा

यही कारण था कि उसका अक्सर देवताओं से युद्ध चलता रहता था. हर बार देवताओं से उसका युद्ध होता, लेकिन देवता उसे परास्त नहीं कर पाते थे.आखिरकार सभी देवा थक हार कर जब भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारी बात बताई. तब भगवान विष्णु को इस बात का आभास हुआ है कि वृंदा के धर्म परायण होने और सतीत्व के प्रभाव के चलते जलांधर कई गुना अधिक शक्तिशाली हो गया है. ऐसे में भगवान विष्णु ने जलांधर का रूप धारण कर वृंदा को भ्रमित कर जलांधर के वध को संभव किया था.जब वृंदा के श्राप से शिला बने विष्णु: जब वृंदा को इस बात की जानकारी हुई कि उन्हें छल पूर्वक भ्रमित किया गया है तो उन्होंने भगवान विष्णु को शिला रूप धारण करने का श्राप दिया. लेकिन बाद में मां महालक्ष्मी के अनुरोध पर वृंदा ने भगवान को श्राप से मुक्त कर दिया था. साथ ही खुद जलांधर के साथ सती हो गई थी. वृंदा की शरीर की राख से भगवान विष्णु ने एक पौधे का सृजन किया और जिसे आज हम तुलसी के नाम से जानते हैं.

देवताओं ने कराया विवाह: इसके बाद जब वृंदा तुलसी रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुई तो भगवान विष्णु को पत्थर की शिला के रूप में शालिग्राम मानकर देवताओं ने कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी-शालिग्राम की शादी करवाई. तभी से इस परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ. देवउठनी से छह महीने तक देवताओं का दिन प्रारंभ हो जाता है. अतः इस दिन तुलसी का भगवान विष्णु यानी शालीग्राम स्वरूप से प्रतीकात्मक विवाह करा श्रद्धालु उन्हें बैकुंठ धाम विदा करते हैं. वहीं, देवउठनी एकादशी को कार्तिक शुक्ल एकादशी भी कहते हैं. इस दिन भगवान विष्णु चार माह की योग निद्रा से जागते हैं, लिहाजा इसको देव उठने से जोड़ते हुए देवउठनी एकादशी कहा गया है.शास्त्रों में इसे देव प्रबोधिनी एकादशी कहा गया है.

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