बीकानेर,मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जब यह कहते हैं कि प्राइवेट अस्पतालों ने लूट मचा रखी है तो लगता है कि उन्होंने कोई नई बात नहीं कही। लेकिन जब वे यह कहते हैं कि प्राइवेट अस्पताल वालों ने राइट टू हैल्थ बिल विधानसभा से पास नहीं होने दिया तो ऐसा लगता है कि सरकार से ऊपर भी कोई है। क्या सरकार सचमुच इतनी कमजोर हो गई कि प्राइवेट अस्पताल संचालकों के दबाव के आगे झुक गई? मुुख्यमंत्री की स्वीकारोक्ति तो कुछ ऐसा ही संकेत दे रही है। सीएम की इस तल्खी के पीछे भले ही मरीजों व उनके परिजनों को यह बताने की मंशा रही हो कि सरकार प्राइवेट अस्पतालों को लूट का अड्डा नहीं बनने देगी। लेकिन जनमानस के मन में उठ रहे इस सवाल का जवाब अवश्य मिलना चाहिए कि जब सीएम को सब कुछ पता है तो वे अस्पतालों में मरीज व उनके परिजनों के साथ लूट-खसौट क्यों होने दे रहे हैं? क्या सरकार से ढेरों रियायतें लेकर फाइव स्टार होटल जैसे अस्पताल खोलने वालों को मनमानी की छूट मिली हुई है? वह इसलिए भी कि जिस मुख्यमंत्री चिरंजीवी योजना का सरकार अपनी बड़ी उपलब्धियों के रूप में बखान करती नहीं थकती निजी अस्पतालों में से अधिकांश ने अपने यहां चिरंजीवी कार्ड स्वीकार नहीं होने के बोर्ड लगा रखे हैं।
यह तो हुए वे सवाल जो निजी अस्पतालों पर सरकारी अंकुश की असलियत बताने को काफी हैं। लेकिन अहम सवाल यह भी है कि आखिर निजी अस्पतालों को पनपाने का काम किसने किया? सवाल यह भी कि आखिर सरकारी अस्पतालों की बजाए मरीज निजी अस्पताल में ही उपचार कराना क्यों पसंद करता है? इसका जवाब खुद मुख्यमंत्री ने ही अपने गुरुवार के एक कार्यक्रम में दे दिया। उन्होंने अपने अनुभवों का जिक्र करते हुए प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल की गंदगी के लिए खुद के शर्मिन्दा होने की बात स्वीकार की। जब मुख्यमंत्री खुद ऐसा महसूस कर रहे हों तो आम जनता का सरकारी अस्पतालों के प्रति क्या अनुभव होगा इसका अंदाजा भी लगाया जा सकता है। दरअसल सरकारें वाहवाही लूटने के इरादे से अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाओं के विस्तार के लिए लंबी-चौड़ी घोषणाएं तो कर देती हैं लेकिन उन पर अमल पूरे पांच साल का कार्यकाल बीतने पर भी नहीं होता। जयपुर को छोड़ दूसरे शहरों की बात करें तो सामुदायिक अस्पताल से लेकर जिला अस्पतालों में डॉक्टर व अन्य सुविधाओं का टोटा है। अस्पताल क्रमोन्नत कर सिर्फ नाम का बोर्ड बदल जाता है लेकिन सुविधाएं जस की तस रहती हैं। राजधानी के आस-पास सैटेलाइट अस्पताल खोलने के सरकारी दावे फुस्स होते दिख रहे हैं। सवाई मानसिंह अस्पताल में मरीजों का दबाव फिर कम कैसे हो?
सिर्फ सीएम ही नहीं, चिकित्सा मंत्री परसादी लाल मीणा तक सरकारी अस्पतालों में बदइंतजामी की बात कई बार स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन चिंता इसी बात की है कि न तो निजी अस्पतालों में जाकर ऑपरेशन करने वाले चिकित्सकों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती और न ही अपनी डॺूटी वाले अस्पताल के आउटडोर के बजाए घर पर ही मरीजों को देखने वालों पर। सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क दवा के बजाए अस्पताल परिसरों के बाहर दवा की पर्ची लिए मरीजों के परिजनों को भटकते देख यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि दवा व जांच में कमीशनखोरी का बाजार कितना हो गया है।
बहरहाल, सीएम ने यदि यह कहा है कि वे निजी अस्पतालों में लूट नहीं होने देंगे तो सचमुच जनता को राहत देने वाली बात है। लेकिन इसके साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि सरकारी अस्पतालों को इतना सुविधा सम्पन्न बनाया जाए ताकि मरीजों व उनके परिजनों को निजी अस्पतालों की शरण लेने की नौबत ही न आए। पर ऐसा हो पाएगा ऐसा फिलहाल तो लगता नहीं है।