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बीकानेर,राजस्थान में अगले ही साल चुनाव हैं, लेकिन राजस्थान की राजनीति में साल 1998 का चुनाव इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है। इस साल के विधानसभा चुनाव में कई चीजें पहली बार हुई थी।इस चुनाव में अशोक गहलोत पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे तो दूसरी तरफ मायावती की पार्टी बसपा का भी इसी चुनाव में प्रादेशिक उदय हुआ था। यह चुनाव परसराम मदेरणा को लेकर भी याद किया जाता है क्योंकि इस चुनाव में कुछ ऐसे विशेष परिस्थितियां बनी थी। जिसके लिए इस साल का चुनाव इतिहास में दर्ज हो चुका है। आइए आपको राजस्थान विधानसभा चुनाव 1998 में वापस लेकर चलते हैं और दिखाते हैं प्रदेश के इतिहास में दबे भूले बिसरे उन किस्सों के बारे में।

1998 का राजस्थान विधानसभा चुनाव दिसंबर के महीने में हुआ था। इसके परिणाम भी दिसंबर में ही घोषित हो गए थे। तब सत्तारूढ़ भाजपा को कांग्रेस ने बेहद करारी शिकस्त दी थी। इस चुनाव में अशोक गहलोत पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। सबसे पहले हम आपको इस किस्से के बारे में बताते हैं।

भाजपा के दिग्गज भैरो सिंह शेखावत को मिली थी करारी हार

साल था 1990, राजस्थान की सत्ता पर काबिज थी बीजेपी. मुख्यमंत्री रहे थे भाजपा के कद्दावर नेता भैरों सिंह शेखावत, उस समय प्रदेश में भाजपा की जबरदस्त लहर थी। लेकिन 1998 के विधानसभा चुनावों के दौरान इस लहर को कांग्रेस की आंधी ने धूल में उड़ा दिया। इस चुनाव से पहले शायद ही किसी को लगा होगा कि लगातार 8 सालों तक राज्य में शासन करने वाली बीजेपी को कांग्रेस इतनी कड़वी शिकस्त देगी।उस दौर में भाजपा भी उस समय सत्ता पर काबिज हुई थी, जब अयोध्या में राम मंदिर का आंदोलन अपने चरम पर था। इसी के बूते पर 1990 के चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया था। यही नहीं उस दौर में कॉन्ग्रेस दूसरी नहीं बल्कि तीसरी पार्टी बनी थी। जनता दल के सहयोग से भाजपा ने राजस्थान की सत्ता की कुर्सी अपने नाम की थी। इसके 3 साल बाद ही 1993 में राजस्थान जैसे प्रदेश को फिर से चुनाव का दौर देखना पड़ा। लेकिन इस बार भी बीजेपी ने पिछले चुनाव के मुकाबले 11 सीटें ज्यादा लाकर सत्ता हासिल कर ली थी।

इस तरह पहली बार मुख्यमंत्री बने थे अशोक गहलोत

साल 1993 में कांग्रेस के दिग्गज नेता परसराम मदेरणा कांग्रेस के सीएम पद के दावेदार माने जाते थे। उस समय प्रदेश कांग्रेस में परसराम मदेरणा की तूती बोलती थी। इन्हीं की अगुवाई में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव लड़ा था। परसराम मदेरणा को ही कांग्रेस का संभावित मुख्यमंत्री माना जाता था लेकिन राजनीति के जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत का भी करियर अपने चरम पर आ रहा था उनके कार्यों को देखते हुए पार्टी में उनके नेतृत्व की मांग बढ़ने लगी। 1998 में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे।कई लोगों को यह पता भी नहीं होगा कि जब 1998 में अशोक गहलोत पहली बार राजस्थान जैसे सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री बने तब वह विधायक ही नहीं थे। विधायक बनने से पहले ही अशोक गहलोत को कांग्रेस के विधायक दल का नेता चुन लिया गया और 1998 की जबरदस्त जीत के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया और यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री के पद के दावेदार कहे जाने वाले परसराम मदेरणा की जगह अशोक गहलोत का नाम अचानक ही फाइनल किया गया था। कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले से कई नेता और जनता तक हैरान हो गई थी। कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने के लिए एक लाइन का प्रस्ताव भेजा था। जिसे परसराम मदेरणा ने पास कराया था।

इन दिग्गजों के बीच सीएम बने राजनीति के जादूगर

आपको बता दें कि राजनीति के जादूगर अशोक गहलोत उस समय राज्य के मुख्यमंत्री बने, जिस दौर में परसराम मदेरणा, सोनाराम चौधरी, रामनिवास मिर्धा, बलराम जाखड़ जैसे दिग्गज नेताओं का प्रदेश की राजनीति में दबदबा माना जाता था। 1998 के विधानसभा चुनाव में वैसे तो कांग्रेस की कमान अशोक गहलोत के हाथों में थी। लेकिन उस वक्त परसराम मदेरणा राजस्थान में कांग्रेस के सबसे दिग्गज और ताकतवर नेता माने जाते थे। यहां तक कि पश्चिमी राजस्थान की सियासत का चेहरा भी परसराम मदेरणा ही थे। दरअसल परसराम मदेरणा जाट समुदाय से थे और यह तो सर्वविदित है कि राजस्थान की राजनीति में जाट समुदाय के नेताओं की तिगड़ीआज भी उतनी ही फेमस है। जितनी उस वक्त थी इनमें रामनिवास मिर्धा, परसराम मदेरणा और बलराम जाखड़ मुख्य नाम थे।मदेरणा की जगह गहलोत बने सीएम

1998 के विधानसभा चुनाव में वैसे तो भाजपा के सामने कांग्रेस ने किसी भी सीएम का चेहरा नहीं उतारा। फिर भी परसराम मदेरणा के राजनीतिक कद को देखते हुए उन्हें सीएम पद का उम्मीदवार माना जा रहा था। कांग्रेस पार्टी ने 200 सीटों पर हुए विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा को कड़ी शिकस्त देते हुए 153 सीटों पर अपना दबदबा कायम किया और भाजपा को मात्र 33 सीटों पर ही समेट दिया। इस चुनाव में जब कांग्रेस के सिर जीत का ताज सजा मुख्यमंत्री के चेहरे के लिए परसराम मदेरणा का नाम आगे आया लेकिन तभी दिल्ली से एक फोन परसराम मदेरणा के पास पहुंचा। जिसके बाद राजस्थान की राजनीति ही पूरी तरह बदल गई और परसराम मदेरणा ने अचानक सभी विधायकों की बैठक बुलाई और आलाकमान द्वारा भेजा गया एक लाइन का प्रस्ताव पास कराया। इस प्रस्ताव में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने और परसराम मदेरणा को प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने रहने की बात कहीं गई थी। कांग्रेस हाईकमान के एक लाइन के प्रस्ताव को सभी विधायकों की सर्वसम्मति से पास करा दिया।

इसके बाद विधायक बनने से पहले ही अशोक गहलोत को विधायक दल का नेता चुन लिया गया। जिसके बाद अशोक गहलोत ने जोधपुर के सरदारपुरा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा। इसमें सबसे खास बात यह रही कि यह सीट पहले से ही मानसिंह देवड़ा के नाम पर थी। यानी मानसिंह देवड़ा इस सीट से विधायक थे। कांग्रेस ने मानसिंह देवड़ा से इस्तीफा दिलवायाऔर इस सीट को खाली कराया। जिसके बाद इस सीट से अशोक गहलोत विधायक चुने गए।

25 दिसंबर 2022 के घटनाक्रम से जोड़ा जा रहा था 1998 का यह किस्सा

आपको बता दें कि 1998 का यह किस्सा इस साल के 25 सितंबर को हुए विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी के आवास पर घटनाक्रम से जोड़कर देखा जा रहा था। क्योंकि कुछ ऐसे ही हालात यहां पर बने थे दरअसल दिल्ली से जयपुर पर्यवेक्षक बनकर आए अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस आलाकमान के एक लाइन के प्रस्ताव को पास कराना चाहते थे। जिसके लिए उन्होंने सीएमआर यानी मुख्यमंत्री आवास पर सभी विधायकों की बैठक बुलाई थी इस बैठक में सचिन पायलट मल्लिकार्जुन खड़गे अजय माकन अशोक गहलोत समेत कुछ विधायक मौजूद थे लेकिन बाकी के विधायक बैठक में नहीं पहुंचे। जिसके बाद 92 विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी के आवास पर जाकर अपना इस्तीफा सौंप दिया। क्योंकि वे आलाकमान के इस एक लाइन के प्रस्ताव के खिलाफ थे। वे अशोक गहलोत की जगह किसी दूसरे को मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देख सकते थे। इसे लेकर ही परसराम मदेरणा के इस घटनाक्रम को बार-बार याद किया जा रहा है।बसपा का हुआ था प्रादेशिक उदय

1998 का विधानसभा चुनाव सिर्फ इसी किस्से के लिए मशहूर नहीं है। बल्कि इस चुनाव में एक और चीज पहली बार हुई थी और वह थी प्रदेश में बसपा की एंट्री। दरअसल इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 2 सीटें मिली थी। तब से बहुजन समाज पार्टी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो गई। देखा जाए तो 1998 से अब तक इन 24 सालों में बसपा को दो बार छह छह सीटें मिली लेकिन इन दोनों ही बार उसका विलय कांग्रेस में हो गया। साल 2018 में भी बसपा के 6 विधायक जीत कर आए थे। लेकिन साल 2019 में ये छह विधायक में कांग्रेस में शामिल हो गए।

1998 से ही हर 5 साल में सरकार बदलने का चलन शुरू हुआ

1998 के बाद है हर 5 साल में सरकार बदलने का चलन भी प्रारंभ हुआ था। 1998 के बाद जब साल 2003 में राजस्थान के विधानसभा चुनाव हुए तब भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त दी। जिसके बाद वसुंधरा राजे के सिर जीत का ताज सजा फिर उसके बाद साल 2008 में जब चुनाव हुए। तब फिर से अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार प्रदेश में बनी। साल 2013 में भाजपा के नेतृत्व में वसुंधरा राजे एक बार फिर मुख्यमंत्री बने जिसके बाद से सरकार बदलने का यह सिलसिला अभी भी जारी है।

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