बीकानेर,आप किसी भवन, मकान या मंदिर के निर्माण होते रोजाना देखते है. सीमेंट बजरी या चूने के साथ पानी मिला पत्थर और ईटो को जोड़ा जाता है, लेकिन बीकानेर में एक ऐसा मंदिर है, जिसके नींव के निर्माण में पानी के स्थान पर हजारों लीटर शुद्ध देशी घी का प्रयोग किया गया, जिसका उल्लेख इतिहासकार भी मानते है.पानी के स्थान पर घी के उपयोग से मंदिर का निर्माण सुनने में अजीब लगता है ना जैसे कोई हवाई बात कर रहा हो. लेकिन बीकानेर में ऐसा मंदिर है, जिसकी नींव का निर्माण एक या दो किलो नहीं बल्कि चालीस हजार किलोग्राम घी से किया गया है. बीकानेर का विश्व प्रसिद्ध भांडाशाह जैन मंदिर, जिसकी नींव घी से भरी गई. साथ ही मथेरण और उस्ता कला नायाब नमूना भी है. इस मंदिर को रोजाना सैंकड़ो देशी-विदेशी पर्यटक देखने आते है.
पांच शताब्दी से ज्यादा प्राचीन भांडाशाह जैन मंदिर दुनिया में अपनी अलग ही ख्याति रखता है. इसका निर्माण भांडाशाह नाम के व्यापारी ने 1468 में बनवाना शुरू करवाया और इसे 1541 में उनकी पुत्री ने पूरा कराया था. मंदिर का निर्माण भांडाशाह जैन द्वारा करवाने के कारण इसका नाम भांडाशाह पड़ा गया. तल से 108 फुट ऊंचे इस जैन मंदिर में पांचवें तीर्थकर भगवान सुमतिनाथ जी मूल वेदी पर विराजमान हैं.यह पूरा मंदिर तीन मंजिलों में बंटा है और लाल बलुआ पत्थरों और संगमरमर का बना है. इस मंदिर के भीतर की सजावट बहुत सुंदर है, इसमें मथेरण और उस्ता कला का शानदार काम किया गया है. इस मंदिर के अंदर के भित्ति चित्र और मूर्तियां भी बहुत दिलचस्प हैं. मंदिर के फर्श, छत, खम्बे और दीवारें मूर्तियों और चित्रकारी से सुसज्जित हैं. मंदिर राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक की श्रेणी में है. मंदिर के 500 वर्ष पूर्ण होने पर डाक विभाग द्वारा विशेष आवरण और विरुपण जारी किया गया था.मंदिर के ट्रस्टी निर्मल धारीवाल इस मंदिर की विशेषताओं के बारे बताने के साथ घी से ही क्यों बना इसको लेकर कहते है कि सेठ भांडाशाह जब मंदिर निर्माण के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी एक मक्खी घी में पड़ गई और सेठ ने उस मक्खी को घी से निकाल निचोड़ कर फेंक दिया. पास खड़े व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा कि जो कंजूस सेठ घी में पड़ी मक्खी को निचोड़ कर फेंक सकता है वो मंदिर क्या बनाएगा. इसी ताने को दिल पर लेते हुए सेठ भांडाशाह ने 40 हजार किलोग्राम घी को मंदिर की नींव में उपयोग लिया. भांडाशाह जैन मंदिर को राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक में शामिल कर सरकार ने ना ही सिर्फ वर्तमान पीढ़ी को बल्कि आने वाली पीढ़ियों को 15वीं शताब्दी की इस नायाब कला को जीवंत रखने का प्रयास किया है.