बीकानेर.मांडणा राजस्थान की प्राचीन कला है। यह कला यहां के लोगों के लोकजीवन में रची-बसी है। प्रकृति में सहज रूप से उपलब्ध होने वाली सफेद व राती (लाल) मिट्टी से उकेरी जाने वाली इस कला की कलात्मकता में यहां के लोगों के मन-मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहे प्रकृति प्रेम, पशु-पक्षी, फूल-पत्ती, सूर्य, चन्द्रमा सहित अन्य प्रकार की चित्रकारी सहज ही फर्श व दीवारों पर उतर आती है। शादी-विवाह और मांगलिक अवसरों के साथ-साथ दीपावली पर्व पर घर-घर में इस प्राचीन कला की झलक देखने को मिलती है। दीपावली के दिन घरों के मुख्य द्वार के बाहर की ओर बनाए जाने वाली गोवर्धन की अनुकृति सहित मुख्य द्वार से घर के आंगन व हर कक्ष तक सफेद व राती मिट्टी से मां लक्ष्मी के पगल्या बनाए जाते हैं। लोगों की मान्यता है कि दीपावली की रात मां लक्ष्मी घर में प्रवेश करती हैं। मां लक्ष्मी के आगमन के प्रतीक रूप में मिट्टी से पगल्या बनाए जाते हैं।
आंगन-पूजन स्थलपर मांडणे
घरों में मां लक्ष्मी के पूजन स्थल पर भी सफेद व राती मिट्टी से मांडणे चित्रित किए जाते हैं। जिस स्थान पर मां लक्ष्मी को विराजित किया जाता है, वहां महिलाएं वर्गाकार आकार में मांडणे बनाती हैं। फूल, पत्तियां, सूर्य, चन्द्रमा, सिक्के, गुल्लक आदि के पारम्परिक मांडणे बनाए जाते हैं। घरों के आंगण में भी मिट्टी से मांडणे बनाने की परम्परा है। घरों के मुख्य द्वार के आगे बनाए जाने वाली गोवर्धन अनुकृति पर भी पारम्परिक मांडणे चित्रित किए जाते हैं।
अब प्रिंटेड पगल्याव रंगोली
दीपावली पर सदियों से चल रही मिट्टी से मांडणे की कला का स्थान अब प्रिंटेड पगल्या व रंगोली भी ले रहे हैं। बाजारों में मां लक्ष्मी के पगल्या व कलात्मक चित्रकारी के प्रिंटेड बहुरंगी चिपकने वाले स्टिकर-रंगोली बिक रहे हैं। लोग इनको घरों पर लाकर मिट्टी से बनने वाले मांडणों व पगल्या के स्थान पर उपयोग ले रहे हैं।दीपावली के दिन घर-परिवार की महिलाएं व बालिकाएं सफेद व राती (लाल) मिट्टी से मां लक्ष्मी के पगलिए (पांव) बनाती हैं। घर के मुख्य द्वार के बाहर बनाए गई गोवर्धन की अनुकृति से लक्ष्मी के पांव की शुरुआत होती है। लक्ष्मी के पगलिए मकान के आंगन, रसोई सहित हर कक्ष तक बनाए जाते है। पगलिए पारम्परिक मांडणा शैली में कलात्मक रूप से फर्श पर चित्रित किए जाते हैं।
प्राचीन है मांडणा कला
मांडणा राजस्थान की प्राचीन कला है। कभी शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में शादी-विवाह, मांगलिक कार्यों और दीपोत्सव पर उकेरी जाने वाली यह कला अब आधुनिकता के रंगों के कारण दब रही है। घरों के बाहर की दीवारों, चौकियों, आंगन, कक्षों की फर्श व दीवार इस पारम्परिक कला से ओत-प्रोत होते थे। अब शहरी क्षेत्रों में बने पक्के मकानों के कारण केवल दीपोत्सव पर ही यह कला नजर आ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी बन रहे पक्के मकानों के कारण यह कला धीरे-धीरे कम होती जा रही है।